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सिरि मुखमय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलौर-दिल्ली धवल, २--जयधवल, ३-महाधवल, ४-अतिशय धवल (भूवलय) और पांचवां । सबको सिखा दिया था ।१७४। विजय पवल रूपी पांच पदवियां प्राप्त हुई थीं ॥१७०-१७१।।
जब अहिंसा धर्म की ख्याति बढ़ गई तब अणुव्रत का पालन करनेवाले इस प्रकार भरतमही को जीत करके संगोट्ट शिवमार दक्षिण भरत भी बढ़ गये ।१७५॥ खण्ड में राज्य करता था । ३ कर्माटक चक्री उनका नाम पड़ा अर्थात् सस यह ख्याति सबको सुख कर है ।१७६। समय सारे भरत खण्ड में कानड़ी भाषा ही राज्य भाषा थी। उनके राज्य का भरत खण्ड की ख्याति ही यह ६ खण्ड शास्त्र रूपी भूवलय की ख्याति दूसरा नाम मण्डल भी था ॥१७२॥
है।१७७। हिंसामयी धर्म सब को दःख देनेवाला है इसलिए वह अप्रिय है। इस
जब इस भूवलय शास्त्र की ख्याति बढ़ गई तब यह भरत खन्ड इस प्रकार का उपदेश देते हए उस चक्री ने राज्य दण्ड और धर्म दण्ड से हिंसा को लोक का स्वर्ग कहलाया। पोर यह प्रथम अमोघवर्ष राजा इस भलोक स्वर्ग का भना दिया ।१७३।
अधिपति कहलाया। इस प्रकार से राज्य करनेवाला अभी तक नहीं हुआ और अहिंसा धर्म अत्यन्त गहन है । इस प्रकार के गहन धर्म को चक्री ने नागे ही होगा इस प्रकार से सभी जनता कहने लगी। १७८ से १८१ लक।
नोट:-एक समय में संगोट्ट शिवमार चक्री अपने राजसी वैभवों के साथ हाथी के ऊपर बैठकर जा रहे थे। उस समय वृष्टि होने के कारण सारी पृथ्वी पंकमयी थी । दूर से देखने पर श्री प्राचार्य कुमुदेन्दु अपने गुरु और शिष्यों के साथ अपनी ओर विहार करते हुए देखकर अपनी सारी सेना रोक दिये तथा स्वयं हाथी से उतरकर पादमार्ग से श्री गुरु के सन्मुख जाकर गुरुओं की बन्दना को । तत्पश्चात् शिवमार सैगोट्ट चको ने जो अपने मस्तक में अमूल्य जवाहरात से जड़ित किरीट बांध रखा था, वह गुरु देव के चरण कमलों में गिर पड़ा। किरीट के गिरते ही उसमें से अमूल्य नायक मणि (तत्कालीन विख्यात मरिण) गुरु के चरण समीप कीचड़ में सन गई और उसकी देदीप्यमान कान्ति मलिन हो गई। गुरुदेव ने अपने शिष्य को शुभाशीर्वाद देकर प्रस्थान करा दिया। इधर शिवमार परम सन्तुष्ट होकर गजारूढ़ हो राजसभा में जाकर सिंहासन पर आसीन हो गया। इससे पहले राजसभा में बैठकर सभा सदों के समक्ष वार्तालाप करते समय तथा अपने मस्तक को इधर उधर फेरते समय किरीट में जड़ित उपयुक्त अमूल्य रल को कान्ति सभी सभासदों को चकाचौंध कर देती यो किन्तु आज उसकी चमक कीचड़ लगजाने के कारण नहीं दीख पड़ी । सभासदों ने मन्त्री से इङ्गित किया कि किरीट में लगे हए कीचड़ को वस्त्र से साफ करदो। यह सुनते ही मन्त्री कीचड़ को वस्त्र से स्वच्छ करने के लिए राजा के निकट खड़ा हो गया । वार्तालाप करने में मग्न राजा की दृष्टि समीपस्थ मन्त्री के ऊपर सहसा जैसे ही पड़ी वैसे ही राजा ने विस्मित होकर पूछा कि तुम यहां क्यों खड़े हो ? मन्त्री ने उत्तर दिया कि मापके किरीट में लगे हुए कीचड़ को साफ करने के लिए मैं खड़ा हुँ । राजा ने मंत्री से कहा कि गुरु की अहेतुकी कृपा से प्राप्त चरम रज को हम कदापि नहीं पोंछने देंगे। क्योंकि इसे हम सदा काल अपने मस्तक पर धारण करना चाहते हैं। राजा की अपूर्व गुरुभक्ति को देखकर सभी सभासद पाश्चर्य चकित हो गये। जब एक साधारण शिष्य को गुरुभक्ति का माहात्म्य इतना बड़ा विलक्षण था तब उनके पूज्य गुरुदेव की महिमा कैसी होगी?
उत्तर---राज्य शासन करते समय शिवमार राजा को जो उपयुक धवल जय धवलादि पांच उपाधियां प्राप्त थीं उन्हीं उपाधियों के नाम से अपने शिष्य शिवमार राजा का नाम अमर रखने के लिए गुरुदेव ने स्वविरचित पांच ग्रन्थों का नामकरण धवल जयधवलादि रूप से हो किया। इन दोनों गुरु शिष्यों की महिमा अपूर्व मौर अलभ्य है।