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________________ सिरि भूवनय सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली भौम सत संत । प्राचार्य बन गये तब उन्होंने वंश, गोत्रसूत्र, शाखा प्रादि सभी को त्याग दिया। इस शिवमार का सैगोट्ट शिषमार नाम मी का। कागड़ी भाला में। १६२१ सैगोट्ट शब्द का अर्थ कथा के श्रवण में केवल हाँ हाँ की स्वीकृति देना है। अहंदल्याचार्य के समय में जैसे गणगच्छ का बिभाग हुमा तो इसी किन्तु कुमुदेन्दु आचार्य अपने शिष्य शिवमार सैमोट्टा को जब भूवलय की क्या रोति से श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी गणगच्छ की स्थापना की थी।१६३।। सुनाते रहे और शिवमार आदि से लेकर अन्त तक मछि भाव से कथा सुनते इस गणगच्छ को ६ भाग में विभाजित हुए भारतवर्ष में सेनगण के रहे, तब उन्हें मतिज्ञान की सिद्धि हुई ॥१४॥ HE गुरु पीठ को स्थापित करके अखिल भारत में सर्वधर्म समन्वय ने दिगम्बर जैन मति ज्ञान प्राप्त हो जाने से पृथ्वी के सम्पूर्ण ज्ञान शिवमार को प्राप्त / धर्म को स्थिर रक्खा। हो मवे ॥१४॥ विवेचनः-आचार्य कुमुदेन्दु के समय में हमारा भारतवर्ष नो भागों ऐसे मान की प्राप्ति तत्कालीन भारतीयों के सौभाग्य का प्रतीक में विभक्त था । जिस प्रकार राज्य नौ भागों में विभाजित या उसी प्रकार था ॥१५॥ धर्म राज्य अर्थात् गुरुपीठ भी नौ भागों में स्थापित हुधा वा । अब इन पुरु नवविध व्रह अर्थात् पंचपरमेष्ठी अक्षर और मछु रेखा वर्ण का संपूर्ण पीठों में कोल्हापूर कांचीवर पेतांबड ये ही तीन गहियां चल रही हैं । रत्नगिरि ज्ञान प्राप्त हो गया, ऐसे शिवमार की रक्षा करके सद्गुरु अर्थात् कुमुदेन्दु भाचार्य । दिल्ली इत्यादि का गुरुपीठ नामशेष हो गया है। की कीर्ति बढ़ गई ॥१५१-१५२॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य और उनके शिष्य शिवमार के राज्य काल में सारे कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि यह कीर्ति ही हमारा पारीर है ॥१५॥ | भारत सन्त में कर्नाटक भाषा राज्य थी। कर्नाटक भाषा में ही भूवलय ग्रन्थ इस कीर्ति से शिवमार को जो विशुस प्राप्त हुआ वह नव नवोदित लिखा गया है। उस कर्नाटक राजा का कर्म बिस्तार पूर्वक कर्म सिद्धांत का था ॥१५४।। कुमदेन्दु भाचार्य ने दिया ।१६५-१६६। वह कीर्ति दसों दिशाओं में वस्त्र के समान फैल गई, अर्थात् कु. । उनको पाया हुआ यह भूवलय नामक ग्रन्थ है ।१६७। दिगम्बराचार्य पाशवसनी थे ॥१५॥ इस प्रकार से यह भूवलय ग्रन्थ विश्व में बिस्त्यात हो गया ।१६। भूवलय विख्यात कीति वाले सेड़गण नामक गुरुपीठि के प्राचार्य उस कर्माटक चक्रवर्ती सैगोट्ट शिवमार को पांच पदवी प्राप्त हुई थीं। ये ॥१५॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य का जन्म जातवंश में अर्थात् महावीर भगवान का वंश पहले का पद धवल, दूसरा पद जयधवल, तीसरा महाधवल इसी रीति से बढ़ते था ॥१५७।। हुए ॥१६॥ कुमुदेन्दु प्राचार्य का गोत्र सदमप्रकीर्णक था॥१५॥ जनता की दीनवृत्ति को नाश करके कीर्ति लक्ष्मी और शील को षषल उनका सूत्र श्री वृषा सूत्र था ।१५६। रूप में बढ़ाते हुए पानेवाला अतिशय धवलापर नामधेय भूवलय रूपी चौथा और प्राचार्य की शाखा द्रव्यांग वेद की थी॥१६॥ विविध भांति विस्मय कारक शब्दों से परिपूर्ण पांचवां विजय पवल है। उनका वंश इक्ष्वाकु वंशान्तर्गत ज्ञात वश था ।१६११ ये पांचों धवल भी भूबलय गपी भरतखण्ड सागर को वृद्धिङ्गत करने-:. श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य जब दिगम्बर मुद्रा धारण करके सेनगण के । वाले पांच पद है । अर्थात् संगोट्ट शिवमार नृप को राज्योभ्युदय काल में -
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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