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सिर मुलच
मेष शृङ्ग वृक्ष के गर्भ से प्राप्त मिट्टी से आकाश गमन की सिद्धि होती है । इस विधि को नमिनाथ श्रीर नेमिनाथ तीर्थंकरों के गपितों से समझ लेनी चाहिए । २३३ ।२३४२३५२३६२३७/२३८/२३६२४० २४११२४२ २४३२४४/२४५२४६२४७।२४८
सम्मेद पर्वत पर रहने वाले अनेक प्रकार के अशोक वृक्षों को पार्श्वनाथ तीर्थंकर के गरिणतों से समझना चाहिए ।
are वृक्ष की जड़ से सुवर्ण अर्थात् सोना बन जाता है। इस विधि को पार्श्वनाथ भगवान् के गरिएतों से समझनी चाहिए। इस विधि को न जानने वाले सील और गड़रिये लोग अपने मेड़िये के पाँवों में लोहे की नाल बांधकर सुब भद्र कूट के पास भेज देते थे। उस जड़ के ऊपर मेड़िये के पांव पड़ने से लोहे की नाल के स्पर्श से पांव में बंधी हुई नाल सोने की बन जाती थी।
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रात में जब भेड़िये घर आते थे तब उनके पांवों में जड़ी हुई नाल को निकाल लेते थे धीर उसको बेचकर अपने जीवन का निर्वाह कर लेते थे । इसी स्वर्णभद्र कूट से पार्श्वनाथ भगवान मोक्ष गए थे इससे इसका नाम सुवर्णं भद्र कूट पड़ा है । इसलिए इसका नाम सार्थक है ।
शालोव वृक्ष से महाऔषधि बन जाती है। इस विधि को श्री महावीर भगवान के गणितों से समझनी चाहिए ।
यक्ष - राक्षस और व्यन्तरों के समस्त शोक की निवारण करने के कारण इन सबको अशोक वृक्ष के नाम से पुकारते हैं । मक्ष-राक्षसों के पास विद्या श्रादि का बल होता पर परन्तु आजकल के मनुष्यों को ऋद्धि-सिद्धि विद्यादि प्राप्त होती असाध्य है । इस कारण कुमुदेन्दु आचार्य ने चौबीस तीर्थंकरों के भगवा ७२ तीर्थंकरों के लांखनों से और तपस्या किये हुए वृक्षों से आरोग्यता आकाश - गमन, लोहादिक को परिवर्तन करने वाले और सुवर्णमय रूप मंत्र ( मशीनरी) इत्यादि को पारे के रससे साधन करनेवाले अनेक रसों की विधि को महां बताया है।
परमात्म जिनेन्द्र भगवान ने वैद्यक शास्त्र में अठारह हजार मंगल तथा हो पुष्पों को तीक्ष्ण स्याद्वाद बुद्धि से अपने गणित के द्वारा निकालने की
सर्वार्थसिद्धि यंत्र बंगलौर-दिल्ली
विधि बतलाई है | २७८
मन तथा बुद्धि की तीक्ष्णता के कितने अंग है ? इस बात को तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा ही गणितों से गुणा करने से पुष्पायुर्वेद का गणितांक देखने में श्री सकता है । २७६१
यदि अनुलोम क्रम को देखा जाए तो इस गुणाकार का पता लग जायगा । उसको यदि माड़े से जोड़ दिया जाय तो नौ-नौ मा जायगा । यह वीर भगवान के कथनानुसार २२५० वर्ग में आता है। इसी विधि के अनुसार यदि कोई गणित देखा जाय तो नौ ही आता है किन्तु उन समी को यहां नहीं लेना चाहिए केवल २६५० ( दो हजार नौ सौ पचास ) के गणित में ही इसे मानना चाहिए | २६०|
इस अध्याय के २५१ श्लोकों में १५९९३ अक्षरांक १०६३५ कुल २६६२८ इस प्रकार अंकाक्षर प्राते हैं। श्री वीरसेन प्राचार्य द्वारा पहले उपदेश किया गया यह भूवलय ग्रन्थ है। आगे अतरंग में आने वाले ४८ "ऋद्धि-सिद्ध आदि नाथरू" नाम के श्लोक के प्राकृत और संस्कृत मात्र अर्थ यहां दिया जाता है।
आगे चलकर समयानुसार प्राकृत भगवद्गीता लिखी जायगी। इसके आगे हम पुनः बारहवें अध्याय के अंतरंग चौबीसवें श्लोक से लेकर २८१ श्लोक तक श्रेणीबद्ध वाक्य से पढ़ते जाएँ तो अन्दर ही अन्दर जैसे कुए के अन्दर से पानी निरन्तर निकालते रहने पर भी पानी कम न होकर बढ़ता रहता है उसी प्रकार भूवलय रूपी कूप में अक्षर रूपी जल न रहने पर भी अंक रूपी जल (२७x २७ = ७२९) निकालकर यदि बाहर रख दिया जाय तो उससे २४ वां श्लोक रूपी जलकरण उपलब्ध हो जाता है। वह इस प्रकार है:
इन रिद्धि सिद्धि 'आदिनाथ' पैलद । धर्मं अजितर गड्गे सार्व ॥ नववाहनगल ए आनेगलुम | नवकार हिनिस्याद्वा ॥
इस श्लोक में "इवु" "पैलदघव" "रावितववाहनगलु" "नवकारस" इन अक्षरों को छोड़कर शेष अक्षरों के अतिरिक्त श्लोक बनते जाते हैं। वह इस प्रकार हैं :
रिद्धि सिद्धि आदिनाथ प्रजितर । गगे एतु आनेगल ||