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किडवण्य' 'कल्ल वप्पु' (धवरणबेलगोल) का पुरना नाम है यह ७ वीं शताब्दी । बीरसेन, समंतभद्र, कवि परमेष्ठी, पूज्यपाद, गृद्धपिच्छ, जटासिंहनंदो अकलंक के पहले के शासन में 'बड्ढारक' नामक प्राचीन ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लिखित । शुभचन्द्र "कृमुदेन्द्र मुनि" विनयचन्द्र, माघवचन्द्र, राजगुरु, मुनिवंद्र, बालचंद, मिलता है। यह स्थान गंग राजा के एक प्रान्त को राजधानी था ऐसा मालूम भावसेन, अभयेंदु, माघनंदियति, "पुष्पसेन' यह कुमुटु भो भूवलय के कता होता है। जैसे अन्य पुण्य तीर्थ है, उसी तरह इसे भी पुण्य क्षेत्र माना जाता नहीं है। इस विषय का अनुशीलन किया जाय तो कुमुदेन्दु गुरु का और उनके । समुदायके माघनंदी-(ई० मु० १२६०) इनको गुरुपरम्परा में मूल समकालीन राजा का क्रिश्चियनज्ञक ८१३ से ५१४ के मध्यवर्ती में सिद्ध होगा।
संघ बलत्कार गण के बगान (अनेक तने मास के शिष्य होने के वाद) श्रीधर इसे हम स्थल रूपमें कह सकते हैं। भूवलय के पागे के अध्याय को जहां तक शिष्य वाम् पूज्य, गिज्य उदयचंद्र, मिप्य कुमुदचंद्र, शिष्य माघनंदि कवि, यह टोग्रंक पर मे निकाल कर देखने के बाद मिलने वाले जितने चाहें उतने साहित्य कमदचंद्र भी भयलयके कर्ता नहीं हैं। से मिश्वियन शक १३ से ५१४ के बीच एक निश्चत समय हमें मिल जाता।
1 कमल भव-(२० म० १२७५) इनके द्वारा बतलाई हुई गुरु परम्परा में है। इससे कुमुदेन्दु प्राचार्य, किश्चियन शक ८ वीं शताब्दी में हुए हैं।
। कोंडकुन्द, भूतबलि, पुष्पदन्त, जिनसेन, वीरसेन, (पागे २३ व्यक्तियों के और वादी कुमुदचन्द्र-(ईसवी सन् १९००) में इन्होंने जिन-संहिता नामक
नाम कह कर) पद्मसेन वति, जयकीति, कुमुदेन्दु योगो, शिष्य माघनंदो मुनि प्रतिष्ठाकल्प की कानडी टोका लिखी है। यह "इति माघनंदी सिद्धांत चक्रवर्ती। इस तरह छह विद्वा के बाद" स्वगुरु माघनदो पंडित मुनि प्रादि है, इस गुरु के पुत्र चतुर्विध पदिन चक्रवर्ती श्री वादी कुमुदचन्द पंडित देव विरचिते' परम्परा में तीन माघनंदी का नाम पाया है। यह कुमदेन्दु भी भूवलय के कर्ता इस प्रकार उनकी स्तुति की गयी है।
नहीं हैं। पाव पंडित-(सन् १९०५) यह अपनी गुरु परम्परा को कहते हुए। इसी तरह कुमुदेन्दु या कुमुदचन्द्र नाम के और भी अनेक विद्वान हो गए वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, सोमदेव, वादिराज, मुनिचन्द्र, श्रुतकोति, नेमिचन्द्र हैं उनकी गुरु परम्परा प्रस्तुत कुमुदेन्दु से भिन्न है, और समय पर्वाचीन है, ऐसी वासपूज्य, शिष्य, थुतकीर्ति, मुनिचन्द्र, पुत्र वीरनंदि, मेमिचन्द्र सैद्धांतिक स्थिति में अन्य नामधारी कुमुदेन्दु नाम के विद्वानों के सम्बन्ध में यहाँ विशेष बलात्कारगरण के उदयचन्द्र मुनि, नेमिचन्द्र भट्टारक के शिष्य वासुपूज्य मुनि, विचार करने का कोई असर नहीं है। क्योंकि उनका प्रस्तुत ग्रंथकर्ता से रामचन्द्र मुनि, नंदियोगी, शुभचन्द्र, कुमुद वन्द्र, कमलसेन, माघवेंदु, शुभचन्द्र सम्बन्ध भी नहीं ज्ञात होता, अस्तु । शिप्य, ललितकोनि, विद्यानंदि, भावसेन, कुमुदचन्द्र के पुत्र वीरनंदि इत्यादि
भाषा और लिपि मुनियों की स्तुति की है। इनमें से कोई भी कुमुदेन्दु प्राचार्य से सम्बन्ध
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य के कहने के अनुसार श्री आदि तीर्थंकर वृषभदेव के नहीं रखते।
गणघर वपनसेन से लेकर महावीर गणधर इन्द्रभूति तक सभी गणघर कुमुद- (६० सन् १२७५) कुमुदचन्द्र की इस गुरु परम्परा में ! कर्णाटक प्रान्त वाले ही थे इसलिये सभी तीर्थकरों का उपदेश सर्व भाषात्मक बोरसेन, जिनमेन (विद्वानों के बाद) वासु पूज्य के शिष्य अभयेन्दु के पुत्र | उस दिव्य दामो में हना था और उसो का प्रमार समस्त लोक में किया गया "कुमुदेन्दु" माधवचन्द्र अभयदु, कुमुदेन्दु अति पुर, 'माघनंदि मुनि, बालेन्दु । था। सर्व भाषात्मक उस दिव्य वाणी को प्रमाग संबद्ध रूप से व्यक्त करने को जिनचन्द्र" यह कुमुदन्द मुनि भी भूबलय के कर्ता नहीं हैं।
शक्ति केवल कर्नाटक भाषा में ही है। ऐसा कहा जाय तो कोई अत्युक्ति महाबल कवि-(ई. सन् १२५४) इनको गुरु परम्परा में जिनसेन । नहीं होगी।