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________________ २१३ सिरि मूवनय सधि सिद्धि संघ देगलोरलदल्ल अन्नान को दूर करनेवाला है । अतः सम्यग्दर्शन शान चारित्र रूप मेरा आत्मा। तथा सर्वसाधू के मिलाने से उभयानुपूर्वी कयन प्रकट हो पाता है । हो तीर्थ है और वही अंतरंग सार है ।३६। वर्ग-इसे निगम पूर्वक यदि गुणा करके देखा जाय तो मूवलय के अर्थ-जिस तरह कीचड़ मिट्टी आदि से रहित जल निर्मल होता है। प्रादि में मंगल रूप २४ तीर्थङ्करों के मन्त्र असि मा उ सा इस पंचाक्षर में उसो तरह मेरा आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य गभित हैं। इस प्रकार पंक्तियों द्वारा अक्षरों से परिपूर्ण काव्य हो पंच परमेष्ठी स्वरूप निर्मल (कर्म मल रहित) है। वही पंचम गति रूप है और वही आत्मा का "वोल्लि" है।४४१ स्वरूप सप्त भयों का विनाश करके अखण्ड अक्षय मोर मुख को देने वाला मर्य-भगवान के १००८ नामों को यदि पाड़ा करके परस्पर में है ।३७ मिला दिया जाय तो अंक पाता है और वही मंक संसार में जन्म-मरण अर्थ-नित्य, निजानन्द, चित्स्वरूप मोक्ष सुक्ष को प्राप्ति में जो सदा करनेवाले जीवों को संसार सागर से पार लगाकर अभीष्ट स्थान में पहुंचा देने रत रहते हैं 'तुम इसी सुख को पाराधना करों इस प्रकार भव्य जीवों को। वाला है, यह भूबलय का कथन है ।४५ जो सदा प्रेरणा करते रहते हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी का ही तुम सदा ध्यान करो, अर्थ-इस प्रपंच में अंक रूपी विस्तृत काव्य को श्री भगवान आराधना करो और पूजा करो (३८। महादीर स्वामी के कथनानुसार यदि गरिणत को दृष्टि से देखा जाय अर्थात अर्थ-वेही महषि हैं, उनके पद हमको प्राप्त हो।' ऐसी भक्ति । १०००+६=११२ हो जाता है और इसी ११२ को सीधा करके पदि षोड़े भावना से प्राराधना करनेवाले पाराधक को सबिकल्प समाधि की सिद्धि तो इस योग से प्राप्त ४ अंकों में से हो जाता है। इन्हीं चारों के आधार होती है ।३६) पर क्रमशः १ धर्म, २रा शास्त्र३रा महविम्ब और ४ था देवालय है। इस अर्थ-दया धर्म के उपदेशक तथा संस्थापक पंच परमेष्ठी की भक्ति । दृष्टि से अंक को विभक्त किया मया है।४६ से आनेवाले प्रक्षर-पक काज्य को प्राकृत संस्कृत कानदी में गभित यह भूवलय । उपर्युक्त पंचाक्षर का अर्थ पंच परमेष्ठी वाचक है । और उस पंच अन्य है। यही मूबलय दयामय रूप है ।४० परमेष्ठी में ऊपर के ४ को मिला देने से देवता हो जाते हैं। इस तरह क्रम अर्थ-इस संसार में रहनेवाले समस्त वस्तुमों को कहनेवाले प्रहंतादि। से अंक के साथ है. बतायों के स्वरूप को बतलाने वाले इस भूवलय अर्थात् पंच परमेष्ठियों के बोल्लि नामक प्रत्य की रचना श्री भूवलय पति के क्रमानु पंच परमेष्ठी के नूतन "बोल्लि" पद्धति को में नमस्कार करता हूँ ४७। सार अतिशय रूप में पूर्वाचार्य ने की है। उस ग्रन्थ में न्याय लक्षणादि ग्रन्थों । अर्थ-हर्ष वर्दन नामक काव्य में ६६१२ अंक हैं। स्पर्श मरिण के को गर्मित करके उसे सातिशय बनाया गया है। उस अन्य में १२००० श्लोक समान इन्हीं मंकों को यदि पाड़ा मिला दिया जाए तो सब अंक को मैं सहर्ष हैं । वे श्लोक परम्परा से अभ्युदय कारक तया निः यस मोक्ष मार्ग की चरम । मन, वचन काय पूर्वक नमस्कार करता हूँ और पंच परमेष्ठो प्रादि सर्व साधुनों सीमा तक पहुंचाने वाले हैं। उसमें केवल पंच परमेष्ठियों के ही विषय हैं । ४२ को में नमस्कार करता हूँ। अर्थ-इस काव्य की मारावना या इसका स्वाध्याय जितने भो भव्य दे सर्व सा किस प्रकार हैं ? तो "साधयन्ति ज्ञानादि याक्तिभिर्मोक्ष" जीव करेंगे उन सबको यह उत्तमोत्तम फल प्रदान करनेवाला है। इसलिए । इति साधवः । समतां वा सर्वमूतेष, ध्यायन्तीति निरुक्ति न्यायादिति साधवः । सार गभित उपयुक पंच परमेष्ठियों के अंको में पुनः पहत सिद्धाचार्य उपाध्याप।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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