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________________ २१२ सिरि भूवजय सपाय सिद्धि संच बेगलोर-विली को प्रज्वलित करते हैं, अपने पारमतत्व में ही रुचि करते हैं. इस पात्मतत्व । परम तप समझनेवाले साधु परमेष्ठी हैं ।२७। रुचि को ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है । सम्यग्दर्शन को निर्मल रीति से पाचरण अर्थ-पात्मा के उत्तम गुण उत्तम तप से प्रगट होते है। आध्यात्मिक करला दर्शनाचार है।गा परमेडी र दा दर्शगातार में रत रखते हैं ॥२०॥ गुण जैसे-जैसे प्रगट होते जाते हैं, तैसे-तैसे चित्त प्रानन्द से भरता जाता है। अर्थ-पांचों इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में राग द्वेष भावना को । उस मानन्द को बढ़ाते जाना ही बेष्ठ तपाचार है ।२८। स्यागकर साघु परमेष्ठी इन्द्रियों को प्रात्म-मुख करलेते हैं तथा समस्त पदार्थों में पर्य-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार तथा तयाचार इन चारों समता भाव रखते हैं। वे किसी भी प्रकार का विकार नहीं माने देते। प्रानन्द पाराधनाओं में रत रहनेवाले, पात्म-आराधक साधु को प्रात्म दृढ़ता को से सदा आत्म-आराधना में लगे रहते हैं ।२१॥ परिशुद्ध वीर्याचार कहते हैं ।२।। अर्थ-वे साधु अपने भेद विज्ञान द्वारा प्रात्मा को शरीर से भिन्न पर्य परम वैभवशाली चारित्राचार को ही विद्वान लोग 'पंचाचार' अनुभव करते हैं। तया ऐसा समझते हैं कि राग द्वेष से उत्पन्न कर्म द्वारा । कहते हैं । उस पंचाचार का प्रतिपादन करनेवाला यह भूवलय है ।३०। शारीर बना है और यह पर भाव का सम्बन्ध कराने वाला है । ऐसा समझकर अर्थ-जिस प्रकार मंदिर के शिखर पर तोन कलश होते हैं उसी प्रकार दे शरीर से ममता छोड़कर आत्मा में ही रुचि करते हैं ।२२। प्रात्मा के शिखर पर रत्नत्रय रूप तीन कलश हैं इसी को कारण समयसार प्रयं-मन्मथ (कामदेव का मथन करनेवाले साए परमेष्ठी मंतरंग। कहा गया है। इसी कारण समयसार से निश्चय समयसार प्राप्त होता है। तथा बहिरंग का मर्म समझते हैं और बहिरंग पदार्थों को हेय (स्यागने योग्य) निश्चय समयसार का ही दूसरा शुद्ध पास्मा है, ऐसा समझना चाहिए ।३१॥ समझकर अपने चित्स्वरूप आत्मा को ही अपना समझते है । इस प्रकार ज्ञाना- अर्थ-मुष्ठु, भद्र, शिव, सौख्य ये मंगल के पर्यायवाची नाम हैं । उस चार के परिपालक साधु परमेष्ठी हैं ।२३।। मंगल को उत्तम करने का निश्चय आत्मा में उत्पन्न होना ही कार्य समय सार अर्थ-अपने आत्म-अनुभव से प्राप्त हुए अनुपम सुख को प्राप्त करने । है और वहो कार्य समय सार साधु परमेष्ठी की परम समाधि को देने वाला वाले साधु पृथ्वी भादि पदार्थों से मोह ममता नहीं करते । इस निवृत्ति से । है ।३२॥ उत्पन्न हुया आनन्द अनुभव के साथ 'मैं मुक्त है ऐसा अनुभव करते हैं। उस अयं धर्म साम्राज्य, वीतरगता तथा निर्मल समाधि में एवं कर्मों का साधु की शुद्ध प्रवृत्ति ही समयकचारित्र है, ऐसा समझना चाहिए ।२४ विनाश करने के लिए तत्पर हुए श्रमण को ही साधु परमेष्ठो कहते है।३३॥ मर्य-इसी निर्मल सम्यक् चारित्र का प्राचरण करनेवाले, तथा कर्मों। अर्थ-हे भव्य जीब ! संसार से तुझे क्या प्रयोजन है, इसे छोड़। का नाश करने की शक्ति रखनेवाले, निश्चय चारित्र को ही धर्म समझने वाले दू पवित्र साधु परमेष्ठो के चरणों का मन बचन काय से सेवन कर। इसी साथ् परमेष्ठी क्या इस जगत में धन्य नहीं हैं ? अर्थात् वे धन्य हैं ।२५ से तुझे अविनायी सुख अनन्त काल के लिए प्राप्त होगा ।३४॥ मर्थ-जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बून्दें कमल अर्य-हे भव्य जीव ! तू साधु परमेष्ठी को नमस्कार कर उनको हृदय के पत्ते को न छकर इधर-उधर होती रहती हैं। इसी तरह साधु संसार में में रखकर स्मरण कर, उनकी स्तुति कर, तथा उनकी प्रशंसा कर । इस प्रकार विचरण करते हुए भी समस्त बाह्य पदार्थों से निर्सप रहकर स्व-मात्मा में । क्रम को बतलानेवाले भूवलय सिद्धान्त के प्रतिपादित मार्ग को यदि तू ब्रहण निमग्न रहते हैं ।२६ । करेगा तो तुझसे मुक्ति पद दूर नहीं है ।३५॥ अर्थ-समस्त इच्छात्रों को रोककर प्रात्माधीन करनेवाले, और अपने अर्थ-हे भव्य जीव ! जिस तरह प्रहंत तीर्थर का परिणुद्ध मान आत्मा को परमात्मा स्वरूप भावना करनेवाले तथा उसी के अनुष्ठान को हो । दर्शन स्वरूप आत्मा है वैसा ही पारमा मेरा मो है। वह परिणुस जान व्यर्थ
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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