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सिरि भूषलय
सवाय सिद्धि संघ बेंगलोर-दिल्ली अर्य-जिस तरह भोला हिरण अपने पराक्रम और वेग से दौड़ता है करके अविनाशी बनाने वाले हैं । इन ६४ अक्षरों से भूवलय का निर्माण हुन उसी तरह साधु भी मन वचन काय की सग्लना के साथ विचरण करते है।। है। इस भूवलय से जान प्राप्त करके साधु परमेष्ठी अपने उपदेश द्वारा समस्त जिस तरह हरे भरे खेत जिस में कि गेहूं, प्रादि अन्न अपने बालि [मुट्ट] जोवों का कर्ममार हलका करते हैं ॥१५॥ से बाहर नहीं पा पाये. है कोई ना छोड़ दी जावं तो वह उस धान्य को बालि विवेचन-भूवलय के इस तीसरे अध्याय के प्रथम लोक से १५ वे (मुड़े) का हानि न पहुंचाना हई, कयद उन ना की घास को खाती है, इसी , श्लोक तक के अन्तिम अक्षरों को मिलाकर प्रचलित भाव गीता के ८ वें प्रकार साधु गोचरी नि ने, भोजन करने वाले बाता को रंच मात्र भी कष्ट । अध्याय के १३वें श्लोक का 'प्रोमित्येकाक्षरं ब्रह्म' यह चरण निकल पाता है। या हानि न पहुंचाते हए सादा नीरस शुद्ध भोजन करके अपना उदर पूर्ण तथ। इसके मागे १६वें श्लोक से २६ श्लोकों के प्रन्तिम अक्षरों को मिलाकरते है 118।।
कर गीता के उक्त चरण से प्रागे का द्वितीय चरण "व्याहरन्माममुस्मरन्" अर्थ-इस अनन्त याकाश में जिस प्रकार वायु अपने साथ अन्य किसी निकल पाता है। इसी प्रकार प्रागे भी भगवद्गीता के श्लोक निकलते हैं। भी पदार्थ को लेकर सर्वत्र घूमती है, उसी प्रकार साधु निःसंग होकर मयंत्र ! उस गीता के अन्तर्गत 'ऋषि मंडल' स्तोत्र निकलता है। उस गीता के श्लोकों बिहार करते है ॥१॥
के अन्तिम अक्षरों को एकत्र किया जाये तो 'तत्वार्थसूत्र' के सूत्र बन जाते है। प्रयं-प्राचार्य उपाध्याय साधु परमेष्ठी अपने दिव्य ज्ञान से विलोकवर्ती 1 अर्थ-जिस तरह दौमक अपने मुख में मिट्टी के क्रण ले लेकर बांबी त्रिकालीन पदार्थों को जानकर समस्त जी को सूर्य के समान प्रकाशित करते तयार करती है, पर उस बांबी में प्राकर मपं रहने लगता है फिर कुछ समय हुए वितरण किया करते ॥१२॥
के बाद वह सर्प उस बांबी से मोह छोड़ कर वहां से निकल अन्यत्र रहने लगता अर्थ-जिस तरह समुद्र पृथ्वी को घेर कर सुरक्षित रखता है इसी तरह है। इसी प्रकार साधु गृहस्थों द्वारा बनवाई गई अनियत वसत्तिका (मठ-धर्मअपने हितमय उपदेश से गंसारी जो बों को घेर कर माघु उनकी रक्षा करते हुए शाला) में प्राकर कुछ समय के लिए ठहर जाते है और कुछ समय पीछे उस स्वयं कम सयों के नाय युद्ध करके कर्मो पर विजय प्राप्त करते हैं। जिस वसतिका से निकलकर निर्मोह रूप से अन्यत्र बिहार कर जाते हैं 1१६। जगार ममेर पर्वत चपात नथा झावान (भयानक पाँधी) से चलायमान न अर्थ-जिस प्रकार पृथ्वी के ऊपर का प्राकाश दूर से (क्षितिज पर) . होकर निदत्रन रहता है उसी तरह माधु महान भयानक उपद्रवों के प्रा जाने पृथ्वी को छूता हुघा-सा दिखाई देता है किन्तु वास्तव में आकाश पुथ्वी आदि पर भी प्राने मामध्यान में चलायमान न होकर प्रचल बने रहते हैं ॥१३॥ किसी पदार्थ को छता नहीं है, निलेप निराधार रहता है। इसी प्रकार साक्ष
अर्थ-जिस तरह यो म ऋतु में भयानक नोक्षण गर्मी से सन्तप्त मनुष्य अपनी पात्मा में निमग्न रहते हैं, संसार के किसी पदार्थ का स्पर्श नहीं करते, को राधि का पूर्ण नन्दमा शान्ति प्रदान करता है. इसी प्रकार संसार दुख मे याकाश के समान निलेप, निरावनम्ब रहते हैं ।१७। मन्तप्त नारी जोयों का मानु सम्मेष्ठी याने जितमिन प्रिय उपदेश से शान्ति । अर्थ-साधु परमेष्ठी को सदा मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा रहता प्रदान करते हैं। ये माबु अपन हृदय में मम्वन्दर्शन, जान, चारित्र रूपी नवय है और वे सदा मोक्ष की साधना में लगे रहते है। उन साधू परमेष्ठी को को माला धारण करते है और वे रत्नत्रय का हो अपना भार समझते हैं मानो हमारा नमस्कार है।१। शरीर प्रादि पर-पदार्थों पर ममता नहीं करत ।।१४॥
अर्थ- साधु द्विज वर्ण के होते हैं, कर्मभूमि में बिहार करते है.. अर्थ-'सर' का अर्थ 'विनाश' है, अतः "अक्षर" का अर्थ "अविनाशो" | दुर्गुणों से अछूते यानी निर्मल रहते हैं तथा कर्मभूमि की जनता को पद्धति है। केवल ज्ञान अबिनाशी है अत: उसे 'अक्षर' भी कहते हैं। बहिरंग में जो । अन्य भूबलय का उपदेश देते रहते हैं ॥१६॥ 'इ' प्रादि ६४ प्रक्षर है वे भी जगतवर्ती समस्त जीवों को कर्मभार से हलका । प्रयं-ये साधु श्रेष्ठ होने से 'परमेष्ठी' कहलाते हैं, विशुद्ध चतन्य ज्योति