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खिर मूषजय
सर्वार्थ सिवि संघ बैंगलोर-दिल्ली यारेष्टु जपसिदरष्टु सत्फलवोध । सारसर्वस्व वि ऐतु ॥
ज्ञान-अमृत मन्त्रका ही भोजन करते हैं ऐसा समझना चाहिए। प्रात्मसमाधिमें लीन सेरिदहत्सिद्धाचार्य पाठक । सारर सनसाघु गळर ॥४३॥ ३ रहने वाले उन साघु परमेष्ठियों पर चाहे जैसे भयानक कष्टदायक उपसम पावें तपदे भूतलग वोगादि मंगल ! हापनाल्वर मन्त्र ॥
किन्तु वे प्रा:म-पान से व्युत (स्खलित) नहीं होते, यात्म-ध्यान में लगे रहते वापुवपंचाक्षर असि प्रा इ सा । विप्पसालक्षर काव्यवमा ॥४४॥
हैं। जिस तरह सिंह भयानक बाधाएं पाने पर भी पीछे नहीं हटता, आगे हो
बढ़ता जाता है, इसी तरह वे सिंह-दृत्ति बाले साधु विघ्न-बाधाओं के द्वारा साविरदेंटु नामगळनु कूडलु । पावन बाद बोम्बत्तु ।।
प्रात्म-ध्यान से पाछे न हटकर आगे बढ़ते जाते हैं ।।३-४-५-६।। साबाग जीवर कावुदेन्नुव काव्य। श्री वीर पेळ व भूवलयम् ॥४॥
अर्थ-जिस तरह गौरवशाली स्वाभिमानी गजराज (हाथी) के सामने धरियो कोम्बत्तुगंळ विस्तरिसलु । बरु कनू रुहन्नरडु ।।
। यदि चावलों का ढेर, गुड़ की भेली तथा नारियल की कच्ची गिरीखाने के लिये परिशुद्ध बदमत्त कूडळु नाल्कु । वरधर्म शास्त्र विम्ब ग्रहगळ ॥४६॥ । रख दी जाये तो वह लोलुपी होकर उसे खाता नहीं, गम्भीर मुद्रा में खड़ा वशवाद पंचाक्षर दोळगी नाल्कु । होसेयलु नब देवतेया॥
रहता है, जब उसका स्वामी उसके दाँत, सूड तथा मस्तक पर प्रेम का हाय होसशास्त्र विदतदु कोट्ट भूवलयद । होस पद्धितिगेरगुवेति ॥४७॥ फेरकर थपथपी देता है, भोजन करने की प्रेरणा करता है तब वह बड़ी गंभीरता हर्ष वर्द्धनमय काव्य प्रोम्बत्तारु । स्पर्श नोळोंन्देर डेम्ब ।।। के साथ भोजन करता है। उसी प्रकार गौरवशाली स्वाभिमानी साघु लोलुपता स्पर्शमरिण गळं दाबोम्बत्तंकके । हर्पदोळरगुबेनिन्दुम् ॥४॥ से भोजन नहीं करते, वे बड़ी नि:स्पृहता के साथ मक्ति सहित ठीक विधि मिलने
अर्थ-मध्य लोक के अन्तर्गत ढाई द्वीप में मक्ति मार्ग की साधना करने पर शुद्ध पाहार ग्रहण करते हैं ॥७॥ वाले प्रात्मकल्याण में निरत जो नोन कम नौ करोड़ मुनिगण अनादि
यानी-कुत्ता अपने भोजनदातर के सामन आकर पूछ हिलाता है, अपने (परम्परा) काल से बिहार करते है उनको में मन बचन काय की शुद्धि के परा का पटकता है, जमान पर लट कर अपना पट मार मुख दिखलाता है, साथ नमस्कार करता है ।
ऐसी चाटुकारी (चापलूमो) करने पर उसको भोजन मिलता है किन्तु हाथी ऐसी अर्थ-अपने ज्ञानादि अनन्त गुणों को भूलकर तथा शरीर आदि पर-1 चापलूसी करक भाजन नहा करता वह तो धार होकर देखता है पार अपने द्रव्य को अपना मानकर यह प्रात्मा यनादि काल में मंसार में भ्रमण कर रहा। स्वामी द्वारा चादकारी किये जाने पर भोजन करता है। है। जब इन प्रात्माके मासन्न भव्यता-प्रगट होती है तब यह अपने हृदय में प्रथम महानती साधु भो भोजन के लिये लोलुपता प्रगट नहीं करते, न किसी श्री जिनेन्द्र देव को स्थापित कर लेता है ।।
से भोजन मांगते हैं, न खाने के लिये कुछ संकेत करते हैं, उन्हें तो जब कोई प्रयं-संचमो साधु पांच महाव्रत तथा तीन गुप्तियों को समान रूप स व्यक्ति भक्ति तथा श्रद्धा के साथ भोजन करने की प्रार्थना करता है तब वे पालन करते है. उपवास यानी प्रात्मा के समीप रहने के उपक्रम के मार्ग से बड़ी नि:स्पृहता धौर गम्भीरता के साथ अपनी विधि के अनुसार भोजन (उपेत्य वसति, इति उपवासः) कहे हुए विधान के क्रम से साधु १८ हजार करते हैं। प्रकार के शीलों तया ८४ लाख उतर गुणों को समझकर पालन करते हैं। वे मर्थ-जिस तरह गाय दिन में बन में जाकर घास चरतो है, और रात को पांचवें परमेष्ठो साथ हमारे (साधारण जनता के) देखने में तो पृथ्वी पर चलते घर पाकर बैठकर जुगाली (चरी हुई धाम का रोंय) करतो है, इसी प्रकार हैं, बैठते है, भोजन करते हैं, परन्तु यथार्थ में दे चलते हुए बैठते हुए तथा भोजन साधु दिन में जो शास्त्र पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं, रात्रि के समय उस ज्ञान करते हुए भी ग्रामसमाधि में लोन रहते हैं। वे अन्न का भोजन करते हुये भो । का खूब मनन करते हैं, उस ज्ञान अमृत का भात्म-ध्यान द्वारा पान करते हैं।