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सिरि भूगलय
सर्षि सिद्धि संभ बैंगलोर-दिल्ली लोक के सभी देव अर्थात् श्री-महाबीर भगवान के भक जन कलकलाहट के साथ | कुमुदेन्दु आचार्य का समय ७५३ वर्ष नहीं बल्कि ६८० वर्ष है। जै जै शब्द का गाना गाते हैं ।।१४२॥
दूसरे शिवमार के पास प्रमोघ वर्ष नामक पदवी थी। उसे राष्ट्रकूट सम्पत्ति युक्त मंगलप्राभृत्तं महाकाव्य के रास्ते से श्री गुरु वीरसेन नृपतुज ने युद्ध में पराजित करके कारागार में डाल दिया था। चाहे वे वहीं पर याचार्य के मतिज्ञान में मिले हुए अरहंत भगवान का केवल-ज्ञान ही यह भूवलय ही मर गये हों पर ऐसी विकट परिस्थिति में भूवलय जैसे महान ग्रत्य का प्रन्थ है ॥१४॥
उपदेश वे कैसे दे सकते थे? कदापि नहीं। किन्तु प्रथम शिवमार ने सम्पूर्ण अमर कहे हुये ३४ प्रतिशय यदि अपने वश में हो जाये तो ऋषियों के भरत खण्ड को अपने स्वाधीन करके हिमवान पर्वत के ऊपर अपना विजय-ध्वज मार्ग से धर्म धारण हो जाता है। तत्पश्चात् असहा ज्ञान विकसित होकर फहराया था इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रथम शिवमार ही श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य आत्मा को मोक्ष सिद्धि हो जाने के समान भाव बढ़ जाता है ॥१४४॥ के शिष्य थे।
' ऐसा ज्ञान बढ़ जाने के बाद हमें (कुमुदेन्दु मुनि को) अर्थात् श्री वीर- अभिप्राय यह निकला कि कुमुदेन्दु आचार्य का समय प्रथम शिवमार का सेनाचार्य के शिष्य को भूवलय जैसे महान् अद्भुत काव्य की कथा विरचित्तथा , न कि द्वितीय का । इस विषय में इतिहास वेत्तानों को मंत्रणा से मैसूर करने की शक्ति उत्पन्न हो गई और श्री जिन सेनाचार्य का ज्ञान सहायक हुमा।विश्व विद्यालय के अन्तर्गत की गई वार्तालाप का विवरण संक्षेप से यहां इसीलिए इस भुवलय काव्य की रचना में हमारा अपूर्व पुथ्य वर्धन हुआ। इस दिया गया है। नाम वस्तु है ॥१४॥
प्राचार्य कुमुदेन्दु द्वारा विरचित थी भूवलयइस भारत के कोने २ में धर्म की अवनति दशा में श्री जिनेन्द्रदेव का
ऐतिहासज्ञों का कथन है कि १५-७-५७ को एक बातचीत में बाइस भक्त मान्यखेट का राजा श्री जिनदेव का भक्त अमोघवर्ष नामक राजा चांसलर डा० के० बी० पुटप्पा ने उनसे यह भाव प्रकट किया कि यदि कुमुदेन्दु ने.॥१४६॥
विरचित श्री भूवलय का संक्षिप्त विवरण ३६ देशों के विद्वान और विद्यार्थियों नव पद भक्ति प्रदान करके समस्त जनता को धर्म में श्रद्धा उत्पन्न ! की विश्व विद्यालय सेवा समाज में, जो कि २५-७-५६ को मैसूर में होने वाली कराके धर्म की स्थापना की। उन समस्त धार्मिक प्रजामों में भव्य जीव और थो, प्रस्तुत किया जाय तो अधिक उचित हो। भव्यों में ग्रासन्न भव्य अपने भव्यत्व लक्षण को प्रकट करते हुये नवमांक सिदि। जब श्री भूबलय के कुछ हस्तलेख और छपे हुए लेख भारत के राष्ट्रपति हमें प्राप्त हो गई, ऐसा जानकर बड़े मानन्द के साथ रहने लगे ॥१४७॥ डा. राजेन्द्र प्रसाद जी को दिखाए गए तो उन्होंने अचानक इसे विश्व का
विवेचन--कन्नड़ भाषा में प्रकट हुये भुवलय ग्रन्थ के उपोद्धात में राष्ट्र-१ पाठवा आश्चर्य बताया और एक वाद-विवाद के समय डा० पुटप्पा ने कहा कि कूट राजा नृपतुङ्ग को प्रमोघवर्ष मानकर उपोद्घात कर्ता ने श्री कुमुदेन्दु । श्री भूवलय ग्रन्थ को विश्व का प्रथम प्राश्चर्य भी कह सकते हैं। प्राचार्य के समय की ८ वीं शताब्दी के अन्तिम भाग अर्थात् कृशताब्द ७८३१ लेकिन दुर्भाग्य का विषय है कि इतना प्राश्चर्य जनक ग्रन्य मैसूर माना है। अब उन्हीं महाशय ने इस नवम अध्याय का अथवा ४० अध्याय से । रियासत तथा इसके बाहर के बहुत कम विद्वान तथा अन्वेषणकारी ही जानते ऊपर के विषयों का अध्ययन करते हुए कुमुदेन्दु प्राचार्य नृपतुङ्ग के गुरु नहीं, है जो कि अभी भी इसके पाश्चर्य से पूर्ण परिचित न होते हुए अपना मार्ग बल्कि गंग वंश के राजा प्रथम शिवमार गुरु थे। उस शिवमार ने हैदराबाद । खोजने की कोशिश में हैं । के मड़खेड़ नहीं, मैसूर प्रांत के बैंगलोर से ३० मील दूरी पर मण्ये नामक ग्राम। आज विश्व के अनेकों विद्वान महत्वपूर्ण प्रयत्नों द्वारा विभिन्न नवीनमें राज्य किया। उनका समय कृस्ताब्द लगभग ६८० वर्ष था। इसलिये श्री ! तात्रों की खोज में लगे हुए हैं। अत: यह अत्यन्त भावश्यक हो जाता है कि