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सिरि मूबलय
सर्वार्थ सिदि सैप बेंगलोर-वल्ली
कभी भी रंचमात्र कम न होने वाला एक ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ! जो कठिनाई से प्राप्त हुआ ।।१५।। समवशरण में विराजमान श्री जिनेन्द्र देव के सिर के ऊपर तीन छत्र झुक रहे । उससे मक रूपी यश काव्य की सिद्धि होती है ॥१५२।। हैं, देवों द्वारा पुष्प वृष्टि होती है तथा पोठ के पीछे प्रभामंडल होता है। ऐसी । यह ऋषीश्वर भगवान जिनेन्द्र देव का वाक्य है ।।१५३॥ ज्ञान प्रभा प्रगट करने वाला भूवलय है ॥१३॥
अन्तर श्लोकों की अक्षर संख्या ७८४८ हैं ।।१५४॥ भूवलय के प्रभावशाली इस 'पा' (दूसरे) मंगल प्राभूत में विविधता १से प्रगट हया ७७८५ । अन्तर में GE४८ अकाक्षर रहने वाला परिपुर्ण ६५६१ अक्षर प्रमाण श्रेणी बद्ध श्लोक हैं । अन्तर श्लोकों के अक्षर ! सर्व सम्मत 'अ' अध्याय भूवलय है ।।१५।। आगे बताते हैं ।।१३६॥
६५६१ ग्रन्तर ७८४८%१४४०६ अन्तर श्लोक
अथवा अन्तर में ५८७७: ॥१४०।।
अ (प्रथम) अध्याय ६५६१ + अन्तर ७७८५=१४३४६+ 'प, (दूसरा) अनेक भाषामय काव्य प्रगट होते हैं ॥१४॥
अध्याय १४४०१=२५७५५ अक्षर हैं दोनों अध्यायों में १५ मंक चक्र हैं। अंकों द्वारा अक्षर बनालेने पर उन विविध काव्यों का निर्माण होता !
इस द्वितीय अध्याय के मूल श्लोकों श्रेणी-बद्ध आद्य अक्षरों से (ऊपर है।।१४२।।
से नीचे तक पड़ने पर) जो प्राकृत गाथा प्रगट होती है उसका अर्थ निम्न. बड़ी युक्ति से उन अंकों को परस्पर मिलाने से उन काव्यों का उदय
लिखित हैं। होता है ।।१४३॥ [८३४२] पाठ तीन चार दो एक ।।१४४॥
प्रथम संहनन (बज्रऋषभ नाराच) तथा समचतुरस्त्र संस्थान-धारी, ११२५०० ॥१४॥
| दिव्य गन्ध सहित एवं नख केश न बढ़ने वाला अर्हन्त भगवान का परमौदारिक यह अंक चारित्र का वर्णन करने वाला है ।। १४६।।
शरीर होता है। अन्तरान्तर में जो काध्य प्रगट होता है, वह चारित्र का वर्णन करता
३ तथा मध्यवर्ती (२७) अक्षर की श्रेणी से जो संस्कृत श्लोक बनता
है उसका अर्थ निम्नलिखित हैहै ।।१४७॥ इस अन्तराधिकार में जितने अक्षर हैं उन्हें बतलाते हैं ।।१४८॥
अविरल (अन्तर रहित) शब्दों के समुदाय रूप, समस्त जगत के कलङ्क बे अक्षर जितने हैं उतने ॥१४६।।
१ को धो देने वाली, मुनियों द्वारा उपास्य सीर्य-रूप सरस्वती (जिन वाणी) वर्ण मिलाने से ॥१५०।
हमारे पापों का क्षय करे।