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________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्ध संघ बंगलौर-दिल्लो ज्ञानावरण के नाश से केवल ज्ञान लब्धि प्रगट होती है जिससे ग्रहन्त करके तीन संध्या काल में अपनी दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को कहा। वे भगवान त्रिलोक, त्रिकाल के ज्ञाता होते हैं । ही जिनेन्द्र भगवान हैं ॥ १३१ ॥ दर्शनावरण कर्म के नाश हो जाने से लोकालोक की सत्ता की प्रतिभासक केवलदर्शन लब्धि प्राप्त होती है । शान्त वैराग्य ज्ञान यादि रसों से युक्त भूवलय सिद्धान्त को प्रभव को श्री जिनेन्द्र भगवान ने तीनकाल-वर्ती विषयों को अन्तर मुहूर्त में प्रतिपादन करके धर्म तो बना दिया ।। १३२ ।। ४३ दर्शन मोहनीय कर्म सर्वथा हट जाने से अक्षय आत्मानुभूति कराने वाली क्षायिक सम्यक्त्व लब्धि प्रगट होती है । चारित्र मोहनीय नष्ट हो जाने पर आत्मा में अनन्त काल तक अटल अचल स्थिरता रूप क्षायिक चारित्र लब्धि का उदय होता है । दानातराय के क्षय होने से पा को अपनी दिव्य वाणी द्वारा ज्ञान दान तथा अभय दान करने रूप अर्हन्त भगवान के अनन्त दान लब्धि होती है। लाभान्तराय के नष्ट हो जाने से बिना कवलाहार किए भी अन्त भगवान के परमोदारिक शरीर की पोषक अनुपम पुद्गल वर्गणाओं का प्रति समय समागम होने रूप क्षायिक या अनन्त लाभ नामक लब्धि प्राप्त होती है । भोगान्तराय के क्षय हो जाने पर जो अर्हन्त भगवान पर देवों द्वारा पुष्प वर्षा होती है, वह क्षायिक भोगलब्धि है। उपभोगान्तराय के क्षय हो जाने पर अर्हन्त भगवान को जो दिव्य सिंहासन, चमर, छत्र, गन्धकुटी आदि प्राप्त होते हैं वह क्षायिक उपभोग लब्धि है । वीर्यान्तराय के क्षय हो जाने पर जो प्रर्हन्त भगवान के आत्मा में श्रमन्तशक्ति प्रगट होती है वह क्षायिक या अनन्त वीर्य तब्धि है । उत नो लब्धियों के स्वामी अर्हन्त भगवान हैं, उनसे ही श्राध्यात्मिक इष्ट मनोरथ सिद्ध होता है, अतः वे ही इष्ट देव हैं। इष्ट देव श्री अर्हन्त भगवान ने चार घाति कर्मों का क्षय करके संसार के परिभ्रमण का अन्त किया और प्रोंकार के अन्तर्गत अपनी दिव्यध्वनि द्वारा भूवलय सिद्धि के लिए उपदेशामृत की वर्षा की ॥ १३० ॥ गन्धकुटी पर रखते हुए सिंहासन के सहस्रदल कमल के ऊपर चार गुल अघर विराजमान अर्हन्त भगवान ने अनन्त अंकों को गणित में गर्भित श्री एक अक्षर है और उसपर लगी हुई बिन्दी एक छौंक है, इस प्रकार ॐ (श्रों) की निष्पत्ति है। समस्त भूवलय ६४ अक्षरात्मक है । ६४ अक्षर में गर्भित हैं। वह कैसे ? सो कहते हैं- ६४ अक्षर (६+४= १०) १० रूप हैं । १० में एक का अंक 'ओ' अक्षर रूप है और बिन्दी अंक रूप है । इस तरह ॐ में ६४ अक्षर गर्भित है । अंक ही अक्षर हैं और अक्षर ही अंक हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।। १३३॥ स्पष्टीकरण - ० ( बिन्दी ) को श्रद्ध रूप में विभक्त करके उसके दोनों टुकड़ों को विभिन्न प्रकार से जोड़ने पर कनड़ी भाषा में समस्त श्रंक बन जाते हैं जैसे ० ( बिन्दी ) को आधे रूप में विभक्त करने से दो टुकड़े हुए उस टुकड़ा का श्राकार क्रमश: एक श्रादि श्रंक रूप बन जाता है । मन्मथ (कामदेव ) की गुदगुदी में जीने वाले समस्त नर पशु श्रादि प्राणियों को श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणों का स्मरण करने से पांच प्रक (५) की सिद्धि होती है अर्थात् पंच परमेष्ठी पद प्राप्त होता है ।। १३४ || श्री अर्हन्त भगवान के परमोदारिक शरीर में नख ( नाखून) और केश (बाल) एक से रहते हैं, बढ़ते नहीं हैं। उन श्रन्त भगवान के एक सर्वाङ्ग शरीर से द्वादश अंग रूप द्रव्य श्रुत प्रगट हुआ। वह द्वादश अंग एक ॐ रूप है ।।१३५॥ अर्हन्त भगवान की उपर्युक्त अनुपम चराचर पदार्थ गर्भित दिव्यवारणी को सुनकर विद्याधर, व्यन्तर, भवनामर, कल्पवासी देवों ने श्री जिनेन्द्र देव में अचल भक्ति प्रगट की ॥१३६॥ रसना इन्द्रिय की लोलुपता से विरक्त भव्य मनुष्य अंक परिपूर्ण भगवान का उपदेश सुनकर पूर्ण तृप्त हुए और अनुपम भूवलय को नमस्कार करके अपने अपने स्थान पर चले गये ।। १३७॥
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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