________________
१८४ .
. .. ..: . सिरिमबजय
सर्वार्थ सिद्धि संघ नगलौर-पिल्ली था । उसका आदि अन्त का रूप काव्यमय था । अर्थात् पहले श्लोक का अंताक्षर परमेष्ठि नमस्कार मंत्र को सुनकर शरीर की वेदना को भूलकर समाधिस्थ ही श्लोक का प्रथम बन जाता था ।१७५॥
हुमा उन दोनों जीवों को सद्गति होने में कौनसा आश्चर्य है ? अर्थात् आश्चर्य सरस्वती देवी अपनी उंगलियों से वीणा पर जो टंकार का मधुर नाद नहीं हैं। . करती है उस नाद से निकले हुए शब्द रूपी भूवलयों से धुतज्ञान को लेकर कुमुदेन्दु प्राचार्य ने अज्ञानी जीवों के कल्याण के लिए केवल असि शिवमार चक्रवर्ती ने पढ़ाया था ।१६।।
मा उ सा मन्त्र का ही प्रयोग करके अत्यन्त मूर्ख तथा निरक्षर भद्र जैसे - नोट-१७६ श्लोक से १६५ श्लोक का विवेचन हो चुका।
जीवों को भी आयु के अवसान काल में इन तुष माष या पंच परमेष्ठी महा एक मदारी एक स्थान पर बैठा हुआ था। उसने भंग पोकर अग्नि को मन्त्र को उन जोवों को देकर अंतिम समय समाधि स्थिरता कराके नीचे फेंक दिया। वह अपनी पोटली में नाग नागिन दो सर्प लिये बैठा था। भंग मूर्ख को ज्ञानी बनाकर देव गति प्राप्त करा दिया. यह कितने उपकार की बात पीकर फेंकी हुई अग्नि उस पोटली में जाकर गिर पड़ी और अन्दर ही अन्दरं । है ! क्या जनागम का महत्व कम है ? अति नहीं । सुलग गई। तब उस पोटली में रखे हुए नाग नागिन प्राण को न छोड़ते हुए । पार्श्वनाथ भगवान को कम के द्वारा अब उपसर्ग हुआ तब मातंग दोनों आपस में लिपटे हुए ऊपर उठकर खड़े होते हुए अग्नि को जलन के कारण सिद्धदाथिनो इत्यादि देव, देवियाँ उस उपसग को दूर करने के लिये क्यों नहीं तड़प रहे थे। उस समय उसी मार्ग में आने वाले पहले भव के पार्शवनाथ भग- पाए और धरणेन्द्र पद्मावती क्यों पाए ? इस प्रश्न का उत्तर ऊपर के विषयों वान अपने पूर्व भव में यतिरूप में जब मा रहे थे तब इन दोनों नाग-1 से हल हो चुका है ।१६६।। नागिनियों के मरण समय को देखकर तुरन्त ही वहां पहुंच गए और इनको पंच महावीर भगवान के हमारे हृदय में रहने के कारण हमारा मन सिंह परमेष्ठियों के नवकार मंत्र को सुना दिया। कभी किसी भव में न सुने हये परम के समान पराक्रमी हो गया है इसीलिये हम वीर भगवान के अनुयायी या भक्त पवित्र इस मन्त्र के शब्द को सुनकर वे दोनों नाग नागिन एकाग्र चित्त से स्थिरता , ऐसा लोग कहते हैं। अपने हृदय रूपी सिंह को महावीर भगवान को सिंहके साथ कपर देखते हुएखड़े हुए। तब पाकाचा मार्ग से घरगेन्द्र और पद्मावती
। वाहन कर समर्पण करने के बाद शूर बीर लोग अन्य देवों को क्यों नमस्कार का विमान जा रहा था। वह विमान अत्यन्त वैभव के साथ जा रहा था। उस करेंगे? कभी नहीं इसीलिये भगवान के सिंहासन का चिन्ह वीरों का चिन्ह महिमा की इच्छा रखते हुए निदान बन्धकर उत्तम सूख की प्राप्ति करने के मार्ग । है ।१६७।। को छोड़कर भुवन लोक में जाकर घरगेन्द्र पद्मावती हुए। यहां कई लोग शंका राज चिन्ह को वीर रस प्रधान होने के कारण आज कल भो अपने करते है कि इस मन्त्र के मन्त्रण से पाम टूटकर गिर जाता है क्या? और महल के ऊपर दोर तथा सिंह के ध्वजा लगाते हैं। इसी कारण से मन रूपी बहुत से लोग वाद-विवाद करते हैं । किन्तु यह बात ठीक नहीं है कि-तत्वार्थ सिंहासन से २२५ कमलों को चक्र रूप बना कर वर्णन किया है ।१९८१ सूत्र में उमा स्वामी आचार्य ने "ध्यानमन्त्रमुहूर्तात् एकाग्र चिन्तानिरोध ध्यान" चार मुख रूप में रहनेवाले सिंह के सिर पर आये हुये १०० कमलों अर्थात् एक वस्तु पर अंतर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनट तक ध्यान रह सकता है। के ऊपर संचरण करने वाले भगवन्त के चरण कमल राग विजय के कारण अगर मनुष्य अपने ध्यान को अंतर्मुहुर्त काल नक स्थिर होकर करता है तो उत्पल पुष्प अर्थात कमल पुष्प के समान दिखता है ।१६८। वह उतने समय में केवल ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अब विचार करो कि शरीर तीर्थंकर के रहने का समय हो मंगलमय होता है। क्यों कि उनके जन्म को में कैसे छोडू ऐसा मन में प्रातरौद्र कर भरे हुए जीव को दुख में प्राप्त होने की लोग प्रतीक्षा करते रहते हैं । जन्म होने के पश्चात उनके होने वाले होना तथा नीच गति में जाकर उत्पन्न होना स्वभाविक है। इसी तरह पंच अन्य तीन कल्याणक अर्थात तप, ज्ञान तथा मोक्ष मिलकर पंच कल्याणक होते
-
-
-
-