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सिरि भूवलय
सर्वाण सिद्ध संघ बेभलोर-दिल्ली दो २ को माना है माज उसी पद्धति के अनुसार कुमुदेन्दु प्राचार्य ने से एक ही रह जाता है । यह ही इसकी अचिन्त्य महिमा है । कुमुदेन्दु सर्व जघन्य अंक दो को मानकर नौवें (नवां) अंक को माठवां प्रक प्राचार्य ने भूवलय' की कला कौशल की रचना में ज्ञानादि अष्ट गुणों माना है। नौ के ऊपर अंक ही नहीं है। फिर यहां में ‘ओं' अर्थात ज्ञान रूपी एक को ही सम्मान्य अर्थात मंगलमय माना' एक शंका होती है कि है और १ मिलकर दो या तो फिर यहाँ यह एक कहां से आ गया ? जब दो को छोडकर एक को लेते
इस भूवलय को गणित शास्त्र के आधार पर लिखा है। अंक हैं तो दो मिटकर एक एक ही रह जाता है। यह एक क्या चीज है? शास्त्र और गणित शास्त्र ये विद्या महान् विद्या है और इन दोनों दुनियां में रोमा प्रचलित है कि प्रत्येक मनुष्य के हाथ में कोई चीज का विषय भिन्न-भिन्न है। अंक शास्त्र का विषय यह है कि सबसे रखी जानी है तो एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से गिनती के द्वारा पहले वृपभदेव भगवान ने मुन्दरी देवी की हथेली पर बिन्दु को काटगिनी जानी है, बे गिनती १०-१२-१५-२० इत्यादि जो मंग्या हैं एक कर एक और दो पापम में मिलाते हुए नौ तक लिखा था। इस को लेकर १२ या १३ या २० या 3 को प्राप्त हुई है। इनमें से विषय का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन करने वाले जो शास्त्र हैं उन्हीं का एक एक संख्या क्रम मे निकाल दी जाए तो अंत में केवल एक ही नाम अंक शास्त्र है। इस अंक शास्त्र के माधार से गणित शास्त्र की रह जाता है।
उत्पत्ति हुई, अर्थात् द्रब्य प्रमाणानुगम नामक रचना भगवान भूतबली उत्तर-अंक-कहे जाने योग्य एक नहीं है। एक का टुकड़ा कर दिया
प्राचार्य ने की। इसी द्रव्य प्रमाणानुगम शास्त्र के ग्राघार से इस भूवलय जाए तो दो टुकड़े हो जाते हैं और दो बार टुकड़े कर दिये जाएं ग्रन्थ के अाधारभूत जड़ को मजबूत किया गया है। इसलिये सर्व जघन्य तो चार होते हैं । इमी क्रम के अनुसार काटने चले जाएं तो काल दो मान लिया और दो से गिनती की जाए तो नौवां अंक पाठवां हो की अपेक्षा अनादि काल से फिर भी अनादि काल तक चलता ही जाएगा । इमलिये पानुपूर्वी क्रम से नवें चन्द्रप्रभु भगवान पाठवें तीर्थरहेगा । क्षेत्र की अपेक्षा मे केवली भगवान गम्प शुद्ध परमाणु कर हुए । इसलिये कुमुदेन्दु प्राचार्य ने न चन्द्रप्रभु भगवान को नमतक जाएगा । जीव की अपेक्षा से सर्व जघन्य क्षेत्रा- स्कार किया है। क्योंकि यह बात ठीक भी है कि संपूर्ण भूवलय की वगाह प्रदेशस्थ क्षुद्र भव ग्रहणधारी जीव नक जायगा, भाव की ६.४ अक्षरों में ही रचना की हुई है और पार को प्राट मे गुरषा करने से अपेक्षा केवनी भगवान के गम्य मुक्ष्मातिसूक्ष्म तक कर पाबंगे। ६४ होना है। ॥१॥ आप लोग हमेशा देखते हैं कि एक रुपया है, अथवा एक
[१] "टवरणेयकोलु" अर्थात् पुस्तक रखने की व्यासपीठ [रहल] घर है, या कोई चीज है ऐसे तुम गिनते रहते हो । नब
[२] पुस्तक [3] पिच्छ [५] पात्र रूपी कमंडल ये चारों ही नव तुम्हारे विचार से ही एक को हमेगा अलग २ मानेग।
पद सिद्धि के काग्गा है। इस प्रकार भूवलय की रचना के आदि में मभी चीज एक कैमे रह मकती है अर्थात् कभी भी नहीं रह
महा महिमावान [वैभवशाली] चन्द्रप्रभु भगवान ने कहा है। ॥२॥ मकती हैं।
इमी (व्यासपीट] अर्थात् रहल में एक पोर चौमठ अक्षर और __इतने महान शक्ति झाली होने पर भी प्रान्मध्यान में तुमरी पोर नौ अंक की जो स्थापना की गई है वही महाबत धारण बैठे हुए योगी राज के ममान अथवा सिद्ध भगवान के यह जो एक किये हुए महात्माओं ने अर्थात् [दिगम्बर मुनिराजों ने] भव्य जीवों अंश पाप अपने अन्दर ही स्थित है । ऐसे एक को एक मे गुण करने की शक्ति को जानकर उनकी शक्ति के अनुसार साध्य हुमा नव केवल