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सिरि भूवलय
लब्धि रूप नव मंगल हो भूवलय है । ॥३॥
यह नौ को वाणी प्रकार शब्द का अतिशय है । ऐसी इस वारणी को इस काल में महावीर वाणी कहते हैं और इसको महामहिमा वाला मंगल प्राभृत भी कहते हैं और इसको महासिद्ध काव्य भी कहते हैं, तथा इसको भूवलय सिद्धान्त भी कहते हैं । 11801
भूवलय की पद्धति के अनुसार 'ह्' और 'कू' इन दोनों अक्षरों के संयोग को द्विसम्योग कहते हैं । २८ और ह् ६० अगर इन दोनों अंकों को जोड़ लिया जाए तो आ जाता है। वह बिन्दी ही बन गयी और ८ को जोड़ देने से १६ बन गया और १ और ६ को जोड़ देने से ७ [सात] बन गया। सात के रूप में ही भगवान महावीर ने इसका नाम सप्तभंगी रखा ।
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जिस समय भगवान महावीर सहस्र कमल के ऊपर कायोत्सर्ग में खड़े थे उस समय देवेन्द्र ने प्रार्थना की कि भव्य जीव रूपी पौदे कुमार्ग नाम की तीव्र गर्मी के ताप से सूखते हुए आ रहे हैं। इसके लिये धर्मामृत रूपी वर्षा की आवश्यकता है इसलिये तुम्हारा समवसरण श्री विहार, अखिल, काश्मीर, ग्रान्ध्र, कर्नाटक, गौड़, बाहलीक, गुर्जर इत्यादि छप्पन देशों में बिहार करके उन जीवों को धर्मामृत की वर्षा करने की कृपा करें, इस प्रकार उन्होंने नम्र प्रार्थना की। यद्यपि भगवान का समवसरण बिना प्रार्थना के चलने वाला था। परन्तु देवेन्द्र की प्रार्थना करना एक प्रकार का निमित्त था। जिस समय देवेन्द्र ने समझा कि भगवान का विहार होने वाला है उस समय इस बात की जानकर कमलों की रचना चक्र रूप में स्थापित की। किस प्रकार स्थापित किया यह बतलाते हैं ?
आगे की ओर सान पीछे की ओर सात, इस प्रकार चारों ओर बत्तीस २ कमल की रचना की अर्थात् चक्र रूप में स्थापना की । अव हमको इस प्रकार समझना चाहिये कि एक एक कमल में १००८ दल अथवा पंखड़ी होती है ।
३२४७ में गुणा करने से २२४ होते हैं और एक वह कमल जो
सर्वायं सिद्धसंघ बैंगलोर-दिल्ली
भगवान के चरण के नीचे है उसको मिलाकर कुल २२५ हुए और २२५ अर्थात् २+२+५ को जोड़ दें तो हो गया और कनाड़ी भाषा में इसका ऐरकालनूर' अर्थ होता है प्रोर इसी का अर्थ भगवान का चरण भी होता है। इसी का अर्थ कायोत्सर्ग में स्थित खड़ा होना भी है। और जब भगवान अपने कदम को दूसरी जगह रखते हैं तो उसी समय भक्तिवश होकर देव उस कमल को घुमा देते हैं। नब घूमने के पश्चात् वही कमल भगवान के दूसरे पांव के नीचे आकर बैठ जाता । प्रय जो २२५ कमल पहले थे उसको दुबारा २२४ से गुणा करने से ५०६२५ हो जाता है। [५+०+६+२+५=१६=८+१=c] ये भी जोड़ देने से परस्पर हो जाता है ।
भगवान के समवसरण में देव देवियाँ ऊपर के अंक के अनुसार अष्ट द्रव्य मंगल को लेकर खड़े थे। जब भगवान अपने पांवों को उठाकर दूसरे पांव पर खड़े हुए उस समय इतने ही द्रव्यों से प्रर्चना [ पूजा ] करते हुए तथा जब तीसरा पांव उठाकर रखा तो इसी अंक के गरिए तानुसार अर्चना करते हुए चले गए। अर्थात् सारे [५६ देशों] भरतखंड में भगवान के जिनने पांच पड़ते गए उतने ही देव देवियां हैं ॥ ६ ॥
जिस समय भगवान बिहार करते थे उस समय भगवान के चरण के नीचे जो कमल होता था उसकी सुगन्ध उसी भूमि से निकलकर भव्य जीवों की नासिका में प्रवेश कर हृदय में जाती थी। तब उनके हृदय में अत्यन्त पुण्य - परमाणु का बन्ध होना था। अब इस समय तो भगवान है ही नहीं, उनके चरण के नीचे का कमल भी नहीं। तब फिर वह गंध किस प्रकार आएगी। क्योंकि प्रव कमल की गंध तो है ही नहीं तो फिर हम क्यों भक्ति करें ?
इस प्रकार के प्रश्न प्रायः उठते हैं जिनका समाधान हम नीचे दिए हुए दसवें श्लोक में करेंगे 1
भगवान अपने समवसरण के साथ विहार करते समय पृथ्वी पर चलने-फिरने वाली चिड़िया के समान चलते थे। परन्तु अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का विहार चक्र के समान अर्थात् आजकल के हवाई- ..