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________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्ध संघ बेगलोर-रिसी बिन घि-चन्द्रमा अपने धवल अर्थात् सफेद शरीर के मंद आलोक, महन्त अवस्था को दिखलाने के लिए दिया गया है। इससे प्रगट हो से मध्य लोक के कुछ भाग को व्याप्त करता है, उसका शरीर भी जाता है कि यह स्तुति अर्हन्त अवस्था को प्राप्त चंद्रप्रभु भगवान की पार्थिव है और वह सकलंक है। परन्तु चन्द्रप्रभु भगवान अपने परमा- है। इस स्तोत्र के प्रारम्भ में पाए हुए 'जयइ घवलं' पद द्वारा वीरदारिक रूप धबल गरीर के तेज में नीनों लोकों के प्रत्येक भाग को मेन आचार्य ने इस टीका का नाम 'जयधवला प्रख्यात कर दिया है व्याप्त करते हैं। उनका अभ्यंतर शरीर पार्थिव न होकर केवल ज्ञान और चिरकाल तक उसके जयबन्त होकर रहने की कामना की है। मय है। और वे निष्कलंक हैं, ऐसे चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र देव सदा पही पाशा कुमुदेन्दु प्राचार्य की भी है, और कुमुदेन्दु आचार्य ने भागे जयवन्न हों। चलकर महावीर इत्यादि द्वारा महावीर भगवान की स्तुति की है। श्लोक ०१ वीरमेन म्वामी ने इसके द्वारा चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र की बाम मोर प्राभ्यन्नर दोनों प्रकार की स्नुनि की है। और श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य अर्थ-प्रयोक वृक्ष प्रादि पाउ महापानिहार्य वैभवों से युक्त ज्ञानादि ने भी "अष्ट महाप्रातिहार्य वैभवदिद" अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी मे पाठ गुगों में से एक 'मों' अक्षर समस्त संसार के लिए मंगलमय है। सुशोभित संपूर्ण प्राणियों को शुद्ध धवलीकृत कल्याण का मार्ग अर्थात जो पाठ गृण है वे इस 'मों के पर्यायरूप हैं। ऐसे गुण और बतलाने के कारण उनको प्रथम नमस्कार किया है। श्री वीरसेन पर्यायसहित मुगगों को प्राप्त करने वाले आठवें चन्द्रप्रभु भगवान को प्राचार्य ने 'घवलंगतएग' इत्यादि पद के द्वारा उनकी बाह्य स्तुति की में ( कुमुदेन्दु प्राचार्य ) प्रणाम करता हूँ। है। औदारिक नाम कर्म के उदय से प्राप्त हया उनका पौदारिक कुमुदेन्दु प्राचार्य ने व्याकरण इत्यादि तथा अाजकल के प्रचलित शरीर शुभ तथा सफेद वर्ग का था । उम शरीर की प्रभा चन्द्रमा नाव्य रचना इत्यादि के क्रम के अनुसार इसकी रचना नहीं की है। की कांति के समान, निस्तेज न होकर तेजयुक्त थी। जो करोड़ों सूर्यो बल्कि जिनेन्द्र भगवान की जो अनक्षरी बागी थी और जो वाणी की प्रभा को भी मात करती थी। अर्थात् तिरस्कार करती थी। उनकी दिव्य ध्वनि के द्वारा सर्वांग प्रदेश मे खिरी थी वैसी ही "केवलणाराशरीरो" इस पद से भगवान की अत्यन्त स्तुति की गई 1 वाणी में प्रापने भूवलय ग्रन्थ की रचना की है। है और कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी इसी प्राशय को लेकर अंगरंग लक्ष्मी इस प्रकार कुमुन्देन्दु आचार्य ने जो इम ग्रन्थ की रचना की है की स्तुति की है। प्रत्येक आत्मा, केवल-ज्ञान, केबल दर्शन--आदि वह गणित के द्वारा ही हो सकती है अन्य किसी साधन से नहीं । अनन्त गुणों का पिंड है । इसलिए उन अनन्त गुगणों के समुदाय को छोड़ कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भी इस भूवनय काव्य की रचना केवल गणित कर आत्मा जैसी स्वतंत्र और कोई वस्तु नहीं है। बाह्य परीर पादि द्वारा ही की है। के द्वारा जो यात्मा की स्तुति की गई, वह, आत्मा की स्तुति न इसीलिये ७१८ ( मात सौ अठारह ) भाषा ३६३ धर्म नथा ६४ होकर किसी विशिष्ट पुण्यशाची प्रात्मा का उम गरीर की स्तुति के द्वारा कलादि अर्थान नीन काल नीन नोक का परमाणु से लेकर वृहब्रह्मांड महत्व दिखलाना मात्र है। यहां केवल ज्ञान यह उपलक्षण है, जिस तक और अनादि काल मे अनन्त काल तक होने वाले जीवों की संपूर्ण में केवल दर्शन प्रादि अनन्न आत्मा के गुणों का ग्रहण होता है, अथवा कथायें अथवा इतिहास लिखने के लिये प्रथम नौ नम्बर (अंक) चार घातिया कर्मों के नाश से प्रगट होने वाले आत्मा के अनुजीवी लिया गया है । एक जो अंक है वह अंक किसी गणना या गिनती में गुणों का ग्रहण होता है। "अनंजणों" यह विशेषण भगवान की ! नहीं पाता है । इसीलिये परम्परा से जैनाचार्यों ने सर्व जघन्य अंक को
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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