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॥ श्री वीतरागाय नमः ||
श्री दिगम्बरजंनाचार्य वीरसेन जी के शिष्य श्री दिगम्बरजंनाचार्य विरचित श्री सर्व भाषामय सिद्धान्त शास्त्र
भूवलय
श्री १०८ दियम्बरनाचार्य देशभूषण जी द्वारा कानड़ी का हिन्दी अनुवाद
प्रथमखंड 'अ' अध्याय
की मोददायकमनंतगुरणाम्बुराशि, श्री कौमुदेन्दुमुनिनाथकृतोपसेवं । श्री देशभूषण मुनीश्वरमासुनम्य, हिंदीं करोमि शुभ भूवलयस्य बुद्ध्या ।। मंगल प्राभृत
भ्रष्ट महाप्रातिहार्य वैभवदन । अष्टगुरगंगळोळों सृष्टि मंगल पर्यार्यादिनित्त । श्रष्टमजिनगेरगुवेत्तु ॥
इस भूवलय ग्रन्थ की रचना के आदि में श्री कुमुदेंदु जैनाचार्य ने मंगल रूप में श्री चन्द्र प्रभु तीर्थंकर को ही नमस्कार किया है। यह चन्द्र प्रभु तीर्थंकर परमं देव कैसे हैं ? सो कहते हैं
अष्ट महाप्रातिहार्य
संपूर्ण विश्व के अन्दर जितनी भी श्रेष्ठ वस्तुएं हैं अर्थात् जितने वैभव चक्रवर्ती देवेन्द्र या मनुष्य के सुख हैं, उन संपूर्ण सुखों से भी अत्यन्त पवित्र एवं मंगलकारी सुख, जो है वह अष्ट महाप्रातिहायों तथा अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी के वैभवों से सुशोभित आठ गुणों से युक्त एक प्रष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान के पास ही हैं वे भगवान हो विश्व के प्राणियों को मंगल के देने वाले है। इसलिये हम अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभु भगवान को मन-वचन-काय से त्रिकरण शुद्धि पूर्वक नमस्कार करते हैं ।
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१ ॥
श्री कुमुदेंदु आचार्य ने केवल अकेले आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु भगवान को ही नमस्कार क्यों किया ?
समाधान- भगवान गुणधर आचार्य द्वारा रचित जयधवल के टीकाकार अर्थात् कुमुदेंदु आचार्य के गुरु वीरसेन श्राचार्य ने जयघवल की टीका के आदि में चन्द्रप्रभु भगवान को ही नमस्कार किया है जैसा कि --
जय धवलंगते ए गाऊरियसयल भुवरण भवरागरणो । केवलरगाण सरीरो थांजरणो सामग्री चंदो ॥
अपने धवल शरीर के तेज से समस्त भुवनों के भवन समूह को व्याप्त करने वाले केवल ज्ञान शरीर धारी, प्रनंजन अर्थात् कर्म से रहित चन्द्रप्रभु जिनदेव जयवंत हो।