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________________ ११८ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ, बेंगलोर-दिल्सी फिर उनको भिन्न-भिन्न लिपियां पढ़ने को कोई प्रावश्यकता नहीं रह जातो । एक साथ रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारी कृपा से बने हुए इस भूवलय अन्य में ।२०५॥ भी नवमांक पद्धति के द्वारा तोन काल और तीन लोक के समस्त विषय यह भूवलय ग्रन्थ नवकार मन्त्र स्प मङ्गल पर्याय से बनाया हुआ। समाविष्ट है इसीलिए बह पाहुड ग्रन्थ है ।२१२। है।२०६। इस अध्याय में श्रेणि वद्ध काव्य में ८०१६ पाठ हजार उन्नीस अक्षरांक इस भूबलय के अध्ययन करने से संसार का नाश होकर सिद्धता प्राप्त है। अब इसी माला के अन्तर काव्य के पत्रों में १३१३१ तेरह हजार एक सौ हो जाती है।२०७१ इकतीस अक्षर है। इन सब अक्षरों से निर्मित किया हा यह भूवलय काव्य . इस भूवलय ग्रन्थ के जो अंक हैं वे सब नवमन्मथ यानी आदि कामदेव । चिरस्थायी हो ।२१३॥ "श्री बाहुबली स्वामी के द्वारा प्रकट किये हुए हैं।२०८।.. ... उ.८०१६+अन्तर १३१३१=२११५० = [] तथा उन्हीं अडाक्षरों को भरत चक्रवर्ती ने सर्व प्रथम लिपि रूप में ! अथवा अवतरित किया था वह लिपि ब्राह्मी लिपि यी, जोकि कर्माष्टक भाषा रूप। भ-उ१०,५५, ८८+२११५० = १,२६,७३८ थी ।२०६॥ इस प्रध्याय के प्रथम श्लोक के प्रावक्षर से प्रारम्भ करके क्रमशः नाजवान बनन रूप काया कल्प करन वाला महापाथ उपयुक्त 1 ऊपर से नीचे तक पढ़ते आयें तो जो प्राकृत इलोक निकलता है उसका अर्थ चौबीस तीर्थंकरों के दीक्षा कल्याणक के वृक्षों के रस से बनती है ( जिसकी हा कहते हैं-(उपपाद मारणान्तिक इत्यादि)। विधि भूवलय के चौथे खण्ड प्राणावाय पूर्व में बतलाई गई है ) परन्तु इस उपपाद और मारणान्तिक समुद्धात मैं परिणित रस तथा लोकपूरण सनाली में होने वाले समस्त संसारी भव्य जीवों का काया कल्प करने वाला । भव्य जाबा का काया कल्प करन वाला। समुद्घात को प्राप्त केवली का पाश्रय करके सारा लोक ही सनालो है। एक सम्यक्त्व रूप महौषधि रस है। मङ्गल पर्याय रूप से उस सम्यक्त्व रूप विविधित भव के प्रथम समय में होनेवाली पर्याय की प्राप्ति को महौषधि रस को प्रदान करने वाला यह भूबलय ग्रन्थ हैं।२१०। । उपपाद कहते हैं । वर्तमान पर्याय सम्बन्धी प्रायु के अन्तम हुर्त में जीव के प्रदेशों . श्रीचन्द्रप्रभ भगवान ने समांक तथा विषमांक को एक कर दिखलाने के प्रागामी पर्याय के उत्पत्ति स्थान तक फैल जाने को मारणान्तिक समुद्घात कतिया प्रङ्क और अक्षर को भी एक कर दिखलाने को पद्धति वतलाई जोकि कहते हैं। (ति.द्वि. अः८) इसो अध्याय के श्लोकों के भट्ठाईसवें प्रक्षर पद्धति विश्वभरके लिए शुभ धोठ और वरप्रद है तथा सर्व कलामय है ऐसा को क्रमशः ऊपर से नीचे तक लेकर लिखें तो इसी ग्रन्थ के अध्याय के अन्त परमोत्तम उपदेश करनेवाले उन चन्द्रप्रभ भगवान को नमस्कार करते हुए तक पाकर जो संस्कृत गद्य अचूरा रह गया था वहां से चानू होता है सोकुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं कि हे भगवान हम सबको पाप रक्षा करें।२११। 'ग्रन्य--कर्ता श्री सर्वजदेवास्तदुत्तर अन्य कर्तारह गणधर देवाह प्रति अब कुमुदेन्दु प्राचार्य उसी चन्द्रप्रभ भगवान को हो जयध्वनि रूप इस गणधर देवाह, अर्थात् इस भूवलय नाम के अन्य के सर्व प्रथम मूल भूत कर्ता भूवलय अतज्ञान को नमस्कार करते हुए कहते है कि जिन वाणी माता श्री सर्वज्ञ भगवान हैं उसके बाहु में इसको गणधर देव गौतमादि ने फिर उनको हमें नाश न होने वाले अक्षरांक को दिया जिसको कि साधन स्वरूप इष्यि प्रति गणधरों ने प्राप्त किया था। लकर हम यह सिद्ध प्राप्त कर सकेंगे । सिद्धावस्था में जिस प्रकार अनन्त गुण ! . इति सप्तमो 'उ' नामक अध्याय समाप्त हुमा।. ...
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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