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________________ सिरि भूवलय ११७ होकर भामण्डल को मानुमण्डल भी कहा जा सकता है। इस भामण्डल का तेज सूर्य के तेज के समान आंखों को अखरने वाला न चन्द्रमा की ज्योति के समान प्रसन्नता देनेवाला होता है। उपर्युक्त अशोक वृक्ष के फूलों की जो वृष्टि होती है वह इस भामण्डल के दिव्य तेज में होकर प्राती है। अतएव दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता है मानो ये फूल देवलोक से ही बरस रहे हों । भगवान के दोनों बगलों में चमर दुरते रहते हैं जोकि दोनों बगलों को मिला कर चौंसठ होते हैं और पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति बाले या शंख के समान घबल कान्ति बाले होते हैं। भगवान के चमर भी चौंसठ होते हैं तो अक्षरों का रङ्ग भी श्वेत माना हुआ है। अक्षर चौंसठ इस प्रकार हैं कि अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ ये नौ स्वर हैं। जो कि हस्व दोघं और प्लुत के भेद से सत्ताईस हो जाते हैं। कवर्गादि पांच के पच्चीस अक्षर है य र ल व श ष स ह ये प्राठ हैं ( अं अः कप,००,००००००० ) ये चार योग वाह अक्षर हैं १८६ से १५९ तक | इन चौंसठ अक्षरों का लिपि रूप कैसा है ? यह प्रश्न हुआ ।९६०। इसका उत्तर ऊपर पहले आा चुका है ।१३१। अकार से लेकर योग बार पर्यन्त चौंसठ अक्षरों का एक प्रक्षर (समूह) बन गया वही चामर का रूप है। इस प्रकार पाठ प्रातिहार्यो का वन हुआ। यह सब नत्रमांक बन्धन से बद्ध हुमा मङ्गल वस्तु रूप है। जिसका कि यहाँ वर्णन है इसलिए इस भूवलय के पहले विभाग का नाम मङ्गल प्राभृत है । मङ्गल काव्य बनाने के लिए कवि लोगों को यहां सब प्रकार की सामग्री प्राप्त हो जायेगी । १९२ से २०० तक । शिव पद को प्राप्त किये हुये श्रीचन्द्र प्रभ जिन भगवान का यह प्रक है | २०११ १प्रसिद्ध कटक भाषा के व्याकरण के यादि रचियता श्री नागवर्म दिगम्बर की इच्छा होती है तो नाभि मण्डल पर से दाव उत्पन्न होकर प्राण वान के अनुकूल पवन निम् जीवनिष्टरिम् कहते पांगिन प्रोल नाभि पोगेदु पट्ट, गु शब्द सिद्धि मंच, बँगलौर - दिल्ली नवमांक से सिद्ध किया हुआ सिद्धांक है | २०२ यह सिद्ध परमेष्ठी का श्रङ्ग होने से इच्छित वस्तु को देने वाला है | २०३ इस ग्रन्थ के अध्ययन करने से गणित पद्धति के द्वारा मुणाकार करने से रस सिद्धि होकर सांसारिक तृप्ति तथा श्रात्म योग प्राप्त होकर पारलौकिक सुख सिद्धि प्राप्त होती है | २०४ | जैनियों के लिए तो भगवान का चौंसठ चामरों का दर्शन होने के साथसाथ ही चौंसठ अक्षरों का ज्ञान हो जाता है। विशेष विवेचन आचाराङ्गादि द्वादश अङ्ग और उत्पादादि चीदह पूर्व तथा पर सेनाचार्य तक कम होते हुए माया हुआ कर्म प्रकृति प्रामृत शास्त्र एवं गुणवरादि द्वारा बनाया हुआ कषाय पाहुड आदि महा ग्रन्थ, कुन्दुकुन्दु के द्वारा बनाये हुए समय सारादि चौरासी पाहुड ग्रन्थ और तत्वार्थ सूत्रादि सभी शास्त्रों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करना एक प्रसम्भव-सी बात है परन्तु कुमुदेन्दु प्राचार्यः कहते हैं कि चौंसठ अक्षरों को जानकर उनके असंयोगी द्विसंयोगो इत्यादि चतुः ष्टि संयोगी पर्यन्त करले तो परिपूर्ण द्वादशांग वाणी को जानकर सहज में हो सकता है जिसमें कि समस्त विश्वभर के शास्त्र समाविष्ट हो रहे हैं। तथा संसार में अनेक भाषायें प्रचलित हैं उनकी लिपियां भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं एक भाषा के जानकार को दूसरी भाषा तथा उसकी लिपि का बोध भी नहीं होता है परन्तु इम भूवलय की पद्धति के अनुसार श्रङ्ग लिपि से लिखने पर हर भाषा के जानकार के लिए वह एक ही लेख पर्याप्त हो जाता है मित्रfree लिखने की जरूरत नहीं पड़ती। मतलब यह है कि दुनिया भर में जितनी पाठशालायें है उनमें यदि भूवलय की ग्रङ्क लिपि पढ़ाना शुरू कर दी जाये तो जैनाचार्य ने अपने दन्दम्बुधि नामक ग्रन्थ में ऐसा लिखा है कि जब मानव को बोलने संयोग मे तुरई की आवाज के समान प्रवाह रूप होकर निकलता है उसका वा श्वेत होता है। देखोदवण्ण श्वेतं ।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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