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सिरि भुषालय
सार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-किसी
होता है । और अपने अपने तीर्थकर के शरीर से बारह गुणा समुन्नत होता । में आते हैं तो उस स का दर्शन करते हो उनका हृदय रूपी कमल प्रफुल्लित है ।१६१०
हो उठता है । और अपनी शक्ति की प्रबलता पर गर्व रखने वाले राजा महानिर्मल तीर्थ तथा मङ्गल स्वरूप रहने वाले इन अशोक वृक्षों का राजा लोग जब इस सिंह के दर्शन करते हैं तो सरल होकर नतमस्तक ही वर्णन करें तो कहां तक करें ।
रहते हैं ।१६६ से १७० तक । जो अशोक वृक्ष सौ धर्मेन्द्र के उद्यान में गुप्त रूप से विद्यमान है और उपयुक्त सिंह शरीर को शौर्यवृत्ति के धारक तथा अहिंसादि महावतों जो समवशरण रचना के समय में भगवान के पीछे में हुमा करता है उसके अक्ष पापालक श्री दिगम्बर जैन परमपि लोग ही इस मङ्गल प्रभूत की वृक्ष की बात यहां पर नहीं है परन्तु भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे केवल भवमांक पद्धांत को पूरी तौर से जान सकते हैं । प्राभूत का ही प्राकृत भाषा ज्ञान पाया उसकी बात यहां पर की गई है। १६२ यहां तक अशोक वृक्ष में पाहुर हो जाता है। दिगम्बर महर्षि लोग जिस आसन से बैठकर इस मङ्गल का वर्णन समाप्त हुमा
प्राभूत को लिखते हैं या इसका उपदेश करते हैं उस आसन को ही वीरासन वरदहस्त के समानभगवान परहन्त के मस्तक पर जो छत्रत्रय होता है वह समझना चाहिए । इसी बीरासन का दूसरा नाम श्री पद्धति है। इस प्रासन : मोतियों की लूम से युक्त होता है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मानों तारामों से के द्वारा ही मङ्गल प्राभूत की झांकी होती है। तथा यह घासन ही भगवान मण्डित पूर्ण चन्द्र मण्डल ही हो। १६३ ।
के रूप को स्पष्ट कर दिखलाने वाला है। इस आसन से मुमि लोग जब भगवान के सिंहासन प्रातिहार्य में जो सिंह होता है वह यद्यपि एक मुख उपदेश करते हैं तो वह उपदेश दीपक के प्रकाश की भांति अपने आपको फैलाता वाला होता है फिर भी नार मुख वाला दीख पड़ता है, क्योंकि वह स्फटिकमणि है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में हो यापनीय संघ नाम का एक मुनि संघ.था। निर्मित होता है। एवं बह सिंहासन भगवान के नय और प्रमाणमय सन्मार्ग जो द्राविड देश में विचरण करता था उस संघ में इस वीरासन की बड़ी महिमा का प्रतीक रूप से प्रतीत होता है।
थी। उन लोगों की मान्यता थी कि इस वीरासन से अशान्ति मिटकर शान्ति उस सिंह के ऊपर एक हजार पाठ दलका कमल होता है जिसकी होती है । तथा यह आसन भारत वर्ष की कोति को बढ़ाने वाला है। यह लाल परछाई उस स्फटिकमणिमय सिंह में झलकतो रहती है। इसीलिए दर्शकों । भूवलय ग्रन्थ भी श्री पद अर्थात् भगवान के चरण कमल की गणित पद्धति से को उसके रत्नमय होने में सन्देह नहीं रहता जहां पर कमल की परछाई बना हुआ है । जिस गरिणत पद्धति को जान लेने पर श्वेत लोह से चान्दी बनाने नहीं रहतो वहां पर सिंह सफेद रहता है ।१६४।।
की विधि भी भारतियों को प्राप्त हो जाती है ।१७१ से १८२ तक। . बारह सभाके बहिर्भाग की ओर जो प्राकार है उसमें जो गोपुर द्वार होते भगवान के दिव्य स्फटिक मय सिंहासन से कुछ दूरी पर हाथ जोड़े हैं वहां से लेकर सिंहासन प्रातिहार्य नक एक रेखा कल्पित करके उस रेखा को हुए प्रफुल्लित मुस्ल होकर वलयाकार रूप से देव लोग खड़े रहते हैं बोकि अर्द्धच्छेद शलाका रूप से उतनी बार काटना जितने कि इस मङ्गल प्राभृत में गम्भीर दुन्दुभिनाद करते रहते हैं सो सब आम जनता को मानो ऐसा कहते हैं अंकाक्षर हैं । मङ्गल प्राभूत में २०७३६०० इतने अक्षर हैं ।१६५॥
कि दौड़कर आयो भगवान के दर्शन करो। भगवान के पीछे में जो अशोक यद्यपि सिंह का मुख देखने में कर भयावना हुआ करता है किन्तु वृक्ष होता है उसके फूलों की बरसा होती रहती है एक बार में अठारह हजार भगवान के आसन रूप जो सिंह होता है वह लोगों को भय उत्पन्न नहीं करता। फूल बरसते हैं एवं बार-चार बरसते रहते हैं। भगवान के परमौदारिक शरीर प्रत्युत शौर्यप्रदर्शित करता है हिंसा को रोककर बल पूर्वक अहिंसा को अस्पष्ट में से जो कुण्डलाकार दिव्य अखण्ड ज्योति निकलती रहती है उसको भामण्डल करने वाला होता है । अनती लोग जब क्रूरता धारण कर लेते हैं तथा समवशरण कहते हैं । उसके प्रागे करोड़ों सूर्यो की ज्योति भी मात खा जाती है। उस ,