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________________ L जहां तक हमको ज्ञान हैं। अंक राशि से निर्मित अन्य कोई ऐसा साहित्य ग्रन्थ अभी तक प्रकाश में नहीं ग्राया । श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने अपने परम गुरु वीर सेन आचार्य की सम्मति से बनाये गये इस "सब भाषामय कर्नाटक काव्य" में वीरसेन आचार्य से पहले को गुरु परम्परा का निम्न रूप में उल्लेख किया है र वृषभ सेन, केसरिसेन, बज्रचामर, चारुसेन, वज्रसेन यदत्तसेन, जलजसेन, दनसेन, विदर्भसेन, नागसेन, कुयुसेन, धर्मसेन मंदरसेन जयसेन, सद्धमंसेन, चकबंध स्वयंभूसेन, कुभसेन, विद्यालसेन, मल्लिसेन, सोमसेन, वरदत्तमुनिः स्वयं प्रभारती, और इंद्रभूति ( २४ तीर्थकरों के आदि गणधरों) के "वायुभूति, अग्निभूति सुधर्मसेन, आर्यसेन मुडिपुत्र, मैत्रेय सेन प्रकंपसेन, आंध्र गुरु [ भग० महावीर के] गणधर हुए। इनके बाद श्री प्रभावसेन ने हरिशिव शंकर गणित के एक महान ज्ञाता वनान्स [ काशीपुरी] में बाद विवाद करके जीता और गणितांक रूप पाहुड ग्रंथको रचना करके दूसरे गणधर पदकी प्रशस्ति प्राप्त की । [ श्र० १३,५०८७, १८, ११६] गुरु परम्परा गुरु परंपरा के इस भूवलय, धागे "पसरिपकन्नाडिनोडेय र पिसुख यदि कन्नडगक सवरनाडिनोचनिपर" इस प्रकार कर्नाटक सेन गए के द्वारा संरक्षण तथा संवृद्धि को प्राप्त कर "हरि, हर, सिद्ध, सिद्धांत, अरहन्ताशा भूवलय" [६. १६६-१६०] घरसेन गुरु के निलय [ ७, १६] इस गाथा नम्बर से उद्धृत होकर घरसेनाचार्य से, अर्थात् घरसेन आचार्य करुणा के पांच गुरु को परम भक्ति से आने वाले अक्षरांक काव्य की रचना करके प्राकृत, संस्कृत और कानडी इन तीनों का मिश्रित करके पद्धति ग्रन्थ का इस १३-२१२ अन्तर श्रेणी के ४० श्लोक तक संस्कृत, प्राकृत, कर्नाटक रूप तीन भाषाओं के शास्त्रों का निर्माण हुआ तथा इस सरलमार्ग कोष्ठक काव्य [५-१-७७] को घरसेन आचार्य के पश्चात् भूतवली ने इस कोष्ठक बन्ध अंक [ ८ ५.१] रूप में भूवलय का नूतन प्राकृत दो संधि रूप में रचना कर गुरु उसे परम्परा तक लाये, इतना ही नहीं किन्तु इसके अतिरिक्त भूवलय के कर्नाटक भाग में ही शिवकोटि [४-१०-१०२] शिवाचार्य [४-१०-१०५] शिवायन [ १०७] समन्तभद्र [ ४-१०-१०१] पूज्यपाद [१६१०] इनके नामों को और भूवलय के प्राकृत संस्कृत भाग श्रेणियों में इन्द्रभूति गौतम गणधर नागहस्ति, यायंमंत्र और कुंद कुंदाचार्यादिक को स्मरण किया है। इस समय अंक राशि चक्र में छिपे हुए साहित्य में नवीन संगति के बाहर निकल आने के बाद इसके विषय में नये नये विचार प्रगट होंगे। हम इस समय जितना प्रगट करना चाहते थे। उतने ही विषय को यहाँ दे रहे हैं। श्री भूवलय को देख कर एवं समझकर, प्रभावित हुया प्रिया पट्टत के जैन बहामा अत्रे मोत्र का देवप्पा अपने कुमुदेन्दु शतक के प्रथम प्रदेश में महावीर स्वामी से लेकर कुछ श्राचार्य का स्मरण कर उनको नमस्कार कर कुमुदेन्दु के विषय को कहा है। कि श्री वासुपूज्य त्रिविधाघर देव के पुत्र उदय चन्द्र, इनके पुत्र विश्व विज्ञान कोविद कीर्ति किरण प्रकाश कुमुदचन्द्र गुरु को स्मरण करते समय उद्धृत हुआ आदि गद्य श्री देशीगरणपालितो बुधनुत। श्री नंदिसंघेश्वर । श्री तर्कागमवाधिहिम (म) गुरु श्री कुंद कुदान्वयहः ॥ श्री भूमंडल राजपूजित सज्जुरोः पादपद्मद्वयो | जोधात् सो कुमुदंदु पंडित मुनिहि श्रवगच्छाधिपह ॥ इस पक्ष में देवप्पा ने इसी भूवलय के कर्ता कुमुदेन्दु को देशी गण नंदिसंध कुंद कुंदाम्नाय का बतलाया है। नये गरण गच्छ को निर्माण करके उन्हीं को उपदेश देने के कारण सेनगर में इन्हों को उल्लेखित किया है, और देशीगया का भी उसी में से विकास हुआ हो, ऐसा जान पड़ता है। इस समय भी सेनगर के कर्नाटक प्रान्त में जैन परम्परा के संचालक एवं अनुयायी अनेक जैन विद्यमान हैं और भूवलय ग्रन्थ के कर्ता कुमुदेन्दु गंग रस की विरदाबलो में दिये हुए कोडचड़ ग्राम तलेकात् श्रथवा तलेकाड नंदिगिरि को विश्ववंश जैनधर्म के पवित्र पर्वतों का वर्णन करते समय उनके सम्पूर्ण भाव जो नंदि पर्वत के ऊपर आदिनाथ तीर्थंकर का 'नंदि' चिन्ह् जो बन गया है, वह रूप उनको प्रशान्त भावना से श्रोत-प्रोत है। यह बात उनके वचनों से स्पष्ट होती है ।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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