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________________ छठा अध्याय विद्यमान वर्तमान काल, पाने-वाला अनागत काल, पोर बीता हा कर दिया है। उन ही ६०००० साठ हजार श्लोकों को गरिएत पद्धति से मिला प्रतीत काल, इन तीनों कालों के प्रत्येक समय में अनंत घटनायें पटित होती हैं। कर श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने भूवलय में ७१८ अठारह भाषाओं में निबद्ध कर तथा होंगी। उस-उस घटना के समीप जाकर प्रत्यक्ष रूप में दिखा देने वाला दिया है। यह भूवलय ग्रन्थ है, तथा त्रिकालवर्ती प्ररहंत देव के योग को भी दिखाने वाला कषायपाहुड़ तथा जय धवल को गणित से निकाला है। और इसके यह भूवलय है ॥१ प्रथमानुयोग कथन को गणित पद्धति से निकाल कर व्यास ऋषि ने जयाख्यान प्रत्येक शब्द सुख प्रादि से उलन होकर अपने कानमें पहुंचने तक बेलके काव्य लिखा है, उसने २२ वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की दिव्य ध्वनि से प्रगट समान बढ़ते बढ़ते लोकान (लोक शिखर) को स्पर्श कर (एकर) मर्दार्थ-सिति द्वादशांग शास्त्र का संग्रह करके हरिवंशी और कुरुवंशी राजाओं का कथन के चारों ओर होकर पुनः समस्त लोक में व्याप्त होते हुए कान को स्पर्श कर जनवंश और मुनिवंश के कथन के साथ मिलाकर २५००० हजार श्लोकों के स्थिर हो जाता है । अर्थात् किसी व्यक्ति के मुख से निकला हा शब्द संपूर्ण । साथ जयाख्यान अन्य की रचना की थी। लोकमें धूमकर कान में पहुंचता है। शब्द वर्गरणामोंमें इतनी तीव्र गमन करने की। व्यास से लेकर आज तक के विद्वानों ने अपने बुद्धि कौशल से घटा बढ़ा पाक्ति है । तो धी सर्वज्ञ भगवान के सर्वाङ्ग से निकली हुई वाणी के तीन लोक । कर रद्दोबदल करते हुए उस महाभारत को सवा लाख श्लोकों में विस्तृत कर में व्याप्त होने में क्या प्राश्चर्य है ? अर्थात् कुछ आश्चर्य नहीं ।।२।। दिया । इसलिए द्वादशांग पद्धति के साथ में उसका मेल न खाने से अथवा नव मांक गणित पद्धति में न आने से असंगत होने के कारण जनों ने उसे नहीं विवेचन-अनादि काल से जितने भी शब्द निकले हैं वे सब कालाणु के। माना। साथ याकाश प्रदेश में हमेशा के लिए स्थित है। प्रागे होने वाले सभी शब्द यहां पर यह शंका होती है कि व्यास ऋषि को जिस प्रकार इस राशि उन ही कालाणु के प्रदेश में घुसकर मिल जाती है। इस रीति से समस्त । ग्रन्थ में मान्य किया है उसी प्रकार और जन ग्रन्यों में इस का उल्लेख क्यों नहीं शब्द-राशि एक क्षेत्रावगाह रूप से स्थित हो जाती है। इसमें से हमको जिस मिलता है ? ... वस्तु का नाम-निर्देश शब्द चाहिये उस को महर्षि गण अपनी योग दृष्टि से इसका समाधान यह है कि यहां पर व्यास शब्द से तीन कम नव करोड़ जानकर सूत्र रूप में रचना कर लेते हैं । उसको ज्ञापक सूत्र अथवा प्रज्ञापक सूत्र ! मुनियों को लिया गया है। उन्हीं में से किसो एक महर्षि के द्वारा कहते हैं। उसके विस्तार रूप व्याख्या को सूत्रार्थ पौरुषी व्याख्यान कहते हैं। इस । इसका निर्माण हुआ है। व्याख्यान को बुद्धि ऋद्धि आदिमें जो प्रवीण होते हैं, वे ही इसका अर्थ कर सकते न्यूनकोटिनवाचार्यान ज्ञानकचरणचितान् । हैं। हमारे समान छद्मस्थ ज्ञानियों से नहीं हो सकता। ज्ञानदकसुखवीर्यार्थमानमानम्यार्यवंदितान् ॥ दृष्टांत के लिए-भूवलयमें आया हुआ षट्खंड आगम और कषाय पाहुड़ । अर्थात्-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक तीन कम पादि है । ग्रन्थ का विवेचन करते हुए 'काय' शब्द में रहने वाले तीन प्रक्षरों नव करोड़ मुनि महाराज लोग हैं जो कि अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन अनन्त सुस को "पेज्ज" शब्द के दो अक्षरों में संग्रह करके सूत्र-बद्ध कर दिया है। सूत्रके इन। और अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टयों के लाभ के लिए मार्य-लोगों के द्वारा ही दो अक्षरों का वीरसेन, जिनसेन, प्राचार्यों ने साठ हजार श्लोकों में विस्तार । वन्दना किये जाते हैं, उन महर्षियों को मैं नमस्कार करता है।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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