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कककककर
सिरि मुंबलय
सर्वार्थ सिदि संप बेंगलोर-बिल्ली इस श्लोक के प्रारम्भ में जो तकार अमर पाया हुया है वह भगवद्गीताक निकलते जाते हैं। उन लम्बाक तथा मंग अंकों से विमल और समर्ने पदर्षि जयाख्यान और ऋग्वेद इन तीनों से सम्बन्ध रखने वाला है। क्योंकि ॐ तत्स- प्रगट हो जाते हैं ।।६।। वितुर्वरेण्यं इत्यादि जो गायत्री मन्त्र है उसके एक एक अक्षर का सम्बन्ध यहां जिस प्रकार ह. (६०) को क (२८) को योग करने पर ५५ होता है चौवन-चौवन श्लोकों तक चल कर जहां गायत्री मन्त्र पूर्ण होता है उसमें फिर और = को योग कर (जोड़) देने पर १६ होते हैं, उस १६ के अंक १ ऋग्वेद जयाण्यान गोता और भगवद्गीता ये तीनों आ जाते हैं। उन सब का तथा ६ को परस्पर जोड़ने से विषम अंक ७ होता है। यह ह क्बन्ध बंष-पाहुड समाहार रूप संग्रह इस भूवलय की गणित पद्धति के अनुसार एक कार में आ से प्रगट हुआ है जहां पर सूक्ष्म अतिसूक्ष्म विवेचन है ॥७॥ जाता है। त् अक्षर नित्य सदा से चला पाया है ।।२।।
जो अध्यात्म योगी हैं वे ही इस ग्रंक-प्रक्रिया को बता सकते है | जब भगवान् पाति कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं संक्षेप में हम उस प्रक्रिया का नाम बतला देंगे। बन्ध-पाहड़ में विषम तो अपनी वाणी द्वारा विश्व भर को प्रतिबोधित करते हैं इसके बाद अघाति योग मंग से प्रारम्भ होता है l कर्मों का नाश करने के समय में उसके पूर्व में जब केवली समुद्घात करते हैं तो विषम योगभंग में ही सम विषम अंक बन जाते हैं ॥१०॥ अपने आत्म-प्रदेशों द्वारा समस्त लोक का स्पर्श करके फिर वापिस हो दारीरमें गा! शन गंकों से जो शब्द बनते हैं वे सब अपुनरुक्त होते हैं ॥१॥ जाते हैं इसका तात्पर्य यह है कि भगवान अपनी वाणी द्वारा पूर्व में विश्व को
इस प्रक्रिया से समस्त द्रव्य आगम ( द्वादश अंग ) प्रगट हो जाता व्यक्त करते हुए अन्त में सम्पूर्ण कर्माटक के अणु रूप में होते हुगे अव्यक्त रूपमें है।.१२॥ आ जाते हैं ॥३॥
वह द्रव्य पागम एक-एक राशि रूप हो जाता है । तब तेलगू भाषा में जिस प्रकार केवलो समुद्घात के समय केवली के पात्म-प्रदेवा मोक्ष में 'वकटि' कनड़ी भाषा में 'प्रो' तामिल भाषा में 'मोन' तथा इसी प्रकार अब रहने वाले सिद्ध जीवों को स्पर्श कर लेने पर (लोक पूर्ण समुद्घात के अनन्तर) भाषामों में 'मोम' निकल कर पाता है ॥१३॥ पुनः अपने मूल शरीर में आ जाते हैं। इसी प्रकार कर्णाटक भाषा १० महा- उन शब्द राशियों में सर्व भाषाओं के अंक प्रगट हो जाते हैं। अब ८५ भाषाओं रूप होकर ७०० क्षुल्लक भाषाओं को अपने अन्तर्गत करके पुनः अपनी बन्ध का नाम कहेंगे ॥१४॥ कर्णाटक लिपिबद्ध रूप बनाने वाला यह 'भूवलय' है ॥४॥
सर्वबन्ध, नौ सर्वबन्ध, उत्कृष्ट बंच, अनुत्कृष्ट बंध, जषभ्य बंग, अजय सात सौ क्षुल्लक भाषामों को तथा १८ महाभाषाओं को उपर्युक्त गुरणा-बन्य, सावि बन्ध, अनादि बन्न, घव बन्ध, अघ्र वबन्ध, मिसिलबन्ध, बब कार क्रम से ६४ अक्षरों के साथ गुणा करने पर सुपर्ण कुमार, (गरुड), गंधर्व, स्वामित्व, बन्ध काल, बन्धान्तर काल, ह क बन्ध सन्निकर्ष, मंगलिवर, भाम किन्नर, किम्पुरुप, नरक, तिर्यञ्च, भील (पुलिन्द), मनुष्य और देवों की भाषा माग, क्षेत्रबन्ध, परिमारण वंध, स्पर्शबन्ध, कालान्तर बंध, भाव बन्ध; अल्प बहुत्व या जाती है ।।५।।
बन्ध, इस तरह २२बन्ध हए ॥१५-२६॥ जिस प्रकार नाट्यशास्त्र में गमक कला द्वारा विविध नृत्य क्रिया प्रगट इन २२बत्रों को प्रकृति, स्थिति अनुमांग और प्रदेश बंध से गुणा होती है उसी प्रकार उपर्युक्त ३ पहाड़े के अनुसार गुणा करते समयसम तथा विषम करने पर २२४४-८८ अठासी भेद हो जाते हैं ॥३०॥
१ प्रकृति बंध, २ स्थिति बंघ, ३ अनुभाग बंध और ४ प्रदेश मंत्र बंध के दो कार भेद हैं। इनमें भी प्रत्येक के १ उत्कृष्ट २ अनुत्कृष्ट ३ जघन्य, और ४ अजघन्य, इस तरह ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृति (स्वभाव) ज्ञान को ढंकना प्रादि है। कर्मों के इन स्वभावों का प्रात्मा के सम्बन्ध को पाकर प्रगट होना प्रकृति है। और भात्मा के साथ कर्मों के रहने की काल-मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। कर्मों में फल देने की शक्ति की हीनता वा अधिकता को अतुभाग