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________________ सिरि भूबलव रार्थि सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध का प्रकृति के द्वारा रचा हुमा। यादि घाउ कर्मों ने अपने प्राधीन कर लिया है उन सब अनादिअनन्त जीवों का ऊपर पाया जो गुणाकार आठ-पाठ ८, है पुनः उसे पाठ से अथवा ! कथन करने वाली यह कर्माटक भाषा है, इसलिए इसमें सुनय पौर दुनय अन्तर्गत पाठ कों से गुणाकार करें तो सात सौ चार (५८४८७०४) होते हैं ॥३१॥ है ॥३५॥ उसमें से चार कम कर दिया जाय (७०४-४-७००) तो ७००रह जाते है जब इस भूवलय ग्रन्थ का स्वाध्याय श्रद्धापूर्वक किया जाता है तब हैं । इन क्षुल्लक भाषाओं का प्रमाण यशस्वती की पुत्री ब्राह्मी देवी ने पशु देव, दुर्नय निकलकर कल्याणकारी केवल सुनय मात्र शेष रह जाती है ॥३६॥ नारकियों की भाषामों को जो वृषभनाथ भगवान से सीखा है वे भाषाएं निकल जब यह मानव सुनय और दुर्नय के स्वम्प को समझ लेता है तो जैन आती हैं। ये भाषाएँ नब ग्रंक रूप कर्म सिद्धांत के अवतार रूप होने के कारण धर्म में रुचि प्राप्त करता है यानी उसके अन्तरङ्ग में जैन धर्म प्रविष्ट हो जाता कर्माटक भाषा रूप होकर परिणत हुई हैं। ऐसा कहते हुए रसायन के समान है ।।३७॥ अपने भीतर समावेश कर लेने यह वालावलय काव्य है ।।३२-३३॥ इस मानव का मन स्पर्शनादि पांचो इन्द्रियों में प्रवृत्त होता है उससे बाइबली ने भगवान ऋषभन से चौसठ कलाओं को समझ लिया था। मनमें जो चंचलता उत्पन्न होती है, उसको यह भूवलय ग्रन्थ निर्मूल करने कर्नाटक देश के प्रादि में प्राने वाली भाषा ने सम्पूर्ण दिनयत्व को अपने भीतर वाला है ॥३॥ गर्भित कर लिया है ॥३४।। जब उपर्युक्त दोष दूर होकर मन परिशुद्ध हो जाता है तब इस भूवलय कर्माटक भाषा में कर्म की कथा और कर्म से मुक्त होने की कथा का। की गरिपत पद्धति के द्वारा समस्त भाषानों में तत्व को जानने की पाक्ति उसे वर्णन है अतः इसमें अनेक नय गर्भित हैं। उन सब को यदि संक्षेप में कहा जावे । सहज प्राप्त हो जाती है ॥३६॥ तो एक सुनय और दूसरा दुर्नय है । जगत में अनन्त नय होने के कारण अथवा । बब गणित शास्त्र का सम्पूर्ण रहस्य प्राप्त हो जाता है तब फिर तीन ३६३ मत होने के कारण प्रत्येक मत प्रौर नय अपने आपको श्रेष्ठ तथा शेष सबको। लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य हस्तगत होने में क्या देर लगती है 11४०॥ कनिष्ठ कहती है, अत: वह दुर्नय है, क्योंकि जिस अंश को यह कहती है इस प्रकार यह गणित शास्त्र इस जीव को मोक्ष देने वाला है ।१४शा पदार्थ उतना ही नहीं है, और अंश भी पदार्थ के हैं उन अवशिष्ट अंशों की इस भूवलय शास्त्र में विश्व की समस्त भाषाओं का समावेश है। यानी उपेक्षा करने के कारण वह दुनय सिद्ध होती है। इस कारण इस दुनय को इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार को भाषाएँ बन जाती है।॥४२॥ एकान्त पक्ष कहते है । सुनय इससे विपरीत है वह विविध अपेक्षामों से पदार्थ के इस भूतल पर नाना प्रकार के परस्पर विरुद्ध जो मत प्रचलित हैं उन समस्त अंशों का समावेश तथा समन्वय करती है। इसलिए उसको मुनय, मवको यह भूवलय एकता के सूत्र में बांध कर सार्थक तथा सफल बनाने वाला सम्यग्नय, प्रमाणाधीन नय, आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। इस तरह सुनय है ।।४३॥ तथा दुर्नय है। समस्त दुर्नयों को और समस्त सुनयों को बतलाकर सबका ठीक इस भूवलय ग्रन्थ के अध्येता को कम से कम जिन-मत-सम्मत अणुव्रत समन्वय करने वाली कर्माटक भाषा है। समस्त संसारी जीवों को ज्ञानावरण धारण करने की योग्यता तो अवश्य प्राप्त हो जाती है॥४४॥ bathokomatoothsts at that theodecidicherrested बंध कहते हैं तथा बंधने वाले कर्मों की परमाणु संख्या को प्रदेश बंध कहते हैं। उत्कृष्ट प्रादिक भेदों के भी१ सादि (जो छूट कर पुनः बंधा हो) २ अनादि बंध (अनादि काल से जिसके बंच का प्रभाव न हुमा हो) ३ ७ वबंध अर्थात् जिसका निरन्तर बंघ हुमा करे और ४ अन वबंध अर्थात् जो अंत सहित व घ हो, इस प्रकार चार भेद हैं । इन बन्धों को नाना जीवों को तथा एक जीव को अपेक्षा से गुणस्थान और मार्गणा स्थानों में यथासंभव घटित कर लेना चाहिए।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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