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________________ सिर मुवलय पर्वार्थ सिद्धि संघ मलौर-दिती जब वह अणुव्रतों पर रुचि प्राप्त कर लेता है तब फिर उसको इस बात जितने प्राभृत हैं वे सब द्वादशांग से ही निकले हैं प्राभृन का अर्थ का भी पूर्ण विश्वास हो जाता है कि भगवान महावीर की वाणी में सात सौ अनादि काल के सम्पूरणं वेद को अनुरूप में बतला देना है। इसलिए इसका नाम पठारह भाषा होती हैं जैसा कि इस भूवलय ग्रन्थ में है ।४५-४६॥ प्राभूत रखा गया है कि महान विषय को मुक्ष्म रूप से कहने वाला है। वह कसे जब यह विश्वास होता है कि भगवान महावीर की वाणी सात सौ सो कहते हैंअठारह भाषाओं में सम्पर्ण तत्व का प्रकाश करने वाली है तो उस जीव के । भगवान महावीर की वाशो से 'तत्त्वमसि' यह शब्द निकला हुआ है उसका चित्त में एक प्रकार का उल्लास होता है एवं उस उल्लास को पैदा कर देने प्रथं यह है कि "तत्' 'वह' 'त्व' 'न' 'असि' यानी' है' । अर्थात् 'वह तू है' । ऐसा की शक्ति जिन भगवान के इस भूबलय ग्रन्थ में है । ४७-४८। . 'तत्त्वमसि' का अर्थ है। इससे यह सिद्ध हुआ कि तत् अर्थात् "सिद्ध परमेष्ठी' भगवान जिनदेव की वाणी जो ६४ अक्षरों के गुणाकार-मय है वह। 'त्वमसि हे आत्मन तू ही है ।५६॥ निरर्थक नहीं है।४६॥ "तत्त्वमसि" असि मा उ सा” इत्यादि महामहिमा-शाली मन्त्रों से भरे जब इस प्रकार की प्रतीति हो जाती है तब वह जीव उन चौसठ अक्षरों होने के करण इस भूवलय को महासिद्धि काव्य कहते हैं ।५७। को गुणाकार रूप से अपने अनुभव में लाता है एवं वह सहज में द्वादशाङ्ग का। वेत्ता बन जाता है 1101 किसी कारणवश लोग सहिष्णुता (सहनशीलता) की बात करते हैं । परन्तु उस महापुरुष के अनुभव में जो कुछ पाता है उसी को अभिव्यक्ती असहिष्णुता (दूसरों की बात या काम न सहसकने का स्वभाव) होने से सच्ची करने वाला भूबलय है । ५१॥ सहिष्णुता प्रगट नहीं होती है । सहिष्णुता के लिए मनुष्य के हृदय में दया का विश्व भर में बिखरे हए जो भिन्न-भिन्न नीन सौ तिरेसठ मत हैं उनहोना आवश्यक है, दया के बिना सच्ची सहिष्णुता नहीं पा सकतो कहा भी है सब को चौंसठ अक्षरों के द्वारा नौ ग्रहों में बांधकर एकीकरण कर बतलाने कि "दयामूलो भवेद्धर्भः" यानी-जहां दया है वहीं धर्म है, जहां दया नहीं है वाला यह भूवलय है ।।२।। यहां धर्म कहां से पावेगा? प्रात्मा का स्वभाव दयामय है. अतः आत्मा का धर्म द्वैत यानी दो और मदत यानी एक इन दोनों को मिलाने से तीन दयामय ही है । अतः जहां दया है वहां पर सहनशीलता स्वयं या जाती है। बनता हे जोकि रत्नत्रय स्वरूप होते हुए अनेकान्त रूप है एवं कार मय है । दया के सुरक्षित रखने के लिए ही समस्त व्रतों का पालन किया जाता है। जैसे जोकि अनादि से चला आया हुआ है उसी प्रकार के प्रङ्कको चौंसठ अक्षरों में , कि "अहिंसावतरक्षार्थ मूलबतं विशोषयेत्" यानी-अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए अभिव्यक्त करते हुए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस भूवलय ग्रन्थ की रचना की है इस 1 मूलबतों की शुद्धि करे १५८। लिए यह कथंचित् सादि तो कचित् अनादि रूप भी है ।५३। संसार के सभी जीच कर्म-बन्धन की दृष्टि से समान हैं। दीखने वाला इस जगत में शिव, विष्णु, जिन, ब्रह्मा आदि महान देव हैं जोकि सभी । छोटा जीव जैसे कर्म जाल में फंसा हुआ है बड़ा जोब भी उसी प्रकार कर्म से कैलाश, वैकुण्ठ सत्यलोक आदि में रहते हैं ऐसा कहकर अपने अपने अपने मान्य । पराधीन है। इसी कारण महान ज्ञानी योगी सब जीवों को अपने समान समझते देव की श्रेष्ठता प्रमट करते हैं और पक्षपात करके परस्पर विरोध बढ़ाते हैं। हैं । इसी कारण वे सभी छोटे बड़े जीव पर दया भाव रखते हैं। जब सब परन्तु भूवलय के कत्ता श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने उस विरोध को स्थान न देते । जीवों की आत्मा एक समान है तब उनको दुःस्व का अनुभव भी एक समान हुए समस्त जीवों को अध्यात्म मार्ग ही कल्याण कारी बताया है। तदनुसार होता है इसलिए सब पर दया करनी चाहिए ॥५६ समवशरण से मिलने वाले सिद्धान्त को जगत में दशों दिशाओं में फैलाकर हृदय में जब ऐसा भाव आता है तब समन्वय की बुद्धि उत्पन्न होती पारस्परिक विरोध मिटाने का भूवलय द्वारा प्रयत्न किया है ।५४-५२ है। समन्वय बुद्धि वाला व्यक्ति ही समाज को, देश को, जाति धर्म, देव पादि
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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