SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली मंगल प्राभूत है मौर मंगल प्राभूत ही भूवलय है । इसी भूवलय के अक्षरों को। अङ्क और अक्षर को समान देखते हुये वह भव भय का नाश करने वाला भिन्न भिन्न प्रणालि से भिन्न भिन्न पृष्ठों के पड़ने पर ३२४०० भूवलय बन होता है ॥१२०॥ जाते हैं। जब तक कि यह संसारी जोब नवम अंक और अक्षरों में भेद समझता सर्व जीवों के भय को निवारण करने वाले योगी को भय कहां से । जा रहा था तभी तक इसको जन्म मरण करना पड़ रहा था। अतः जब उन पायेगा । जिस योगी ने परानु राग को जीत लिया है इन योगी राज को भय । दोनों में अभेद स्थापना कर लेता है तो सहज में जन्म मरण से रहित हो जाता कहां से होगा, स्वयं शुद्ध रूपानु चरण में रत रहने वाले योगी को भय कहां? ! है। ।।१२। । सम्पूर्ण नय मार्ग की प्राकुलता को छोड़कर आत्म चितवन में रहने वाले योगी। अज्ञान रूपी जो अंधकार था अब वह मष्ट हो गया अर्थात उसको पूछता है कि भय कैसा है ॥११॥ भगा दिया ॥१२२॥ जो योगी असमान शान्त भाव में रहने के कारण अस स्थावर जीवों वह योगी निरंजन पद का धारी होता है ।।१२३॥ के हित को साघन करने वाला होता है, बह योगी शाश्वत मुक्ति सुख को ! जनको विशाल धर्म साम्राज्य मिल जाता है ।।१२४॥ प्राप्त कर लेता है । क्योंकि वह योगी देहादिक संसार के सम्पूर्ण पोद्गलिक धर्म रूपी पर्वत की शिखर पर पहुंच जाता है ।।१२।। पदार्थो को अपने से भिन्न समझता है और वह योगी विचार करता है कि इन अर्थात् धर्म द्रव्य लोक के अन्त तक है इस लिये यह आत्मा उसके अन्त पौद्गलिक पर पदार्थों में होने वाले सुख दुःख की याकुलता का कितना बल है । तक पहुंच जाता है। इसको मैं देख बूंगा। इस प्रकार धैर्य धारण करते हुए सम्पूर्ण कर्म मल उसकी कवि कल्पना भी नहीं कर सकता है ॥१२६।। को नाशकर शुद्धात्मा बन जाता है ॥११६-११७|| अपने भात्म-तत्व के साथ अन्य संपूर्ण तत्व को जानता है ।।१२७।। अर्हत्सिद्धादि नव पदों को गुणा कार रूप अपने प्रात्म गौरव को बढ़ते सभी गणित शास्त्र तत्वज्ञों का यह कथन है कि नव प्रक को दो अंक हुए वह योगी अपने आत्मस्वरूष को शुद्ध बनाता है तो उसके पास पर पदार्थों से विभाजित करने पर शेष शून्य नहीं आता है किन्तु जैनाचार्यों ने असाध्य कार्य के प्रति तिलमात्र मी राग नहीं रह जाता है । ११८॥ को भी साध्य कर दिया है, अर्थात् नब को दो से विभाजित करके शेष शून्य को हे पात्मन ! जय हो जय हो ! इस प्रकार परम उल्लास को प्राप्त होते । बचा दिया है। इसका विवरण दूसरे अध्याय के विवेचन में कर चुके हैं, वहां से हए तथा पर पदार्यों के लगाव को दूर हटाते हुए केवल अपने शुद्ध प्रात्मा के । समझ लेना ॥१२॥ चितवन में ही लीन हो रहा है ॥११॥ यह योगी अनादि काल से चले आये भव समुद्र के जन्म रूप जल के __ वह योगी-जब अहंसिद्धादि नव पदों के चितवन में एकाग्रतापूर्वक ! कणों को ऊपर रहे हुए गरिणत रूप से जान लेता है । तल्लीन होता है एवं नवम अङ्क की महिमा को प्राप्त करता है तब उस समय । नवकार मंत्र को जपते रहता है ।।१२०॥ उस नवम अङ्क की महिमामय अपने माप को ही अनुभव करते हुए तथा नवम | म. इ. उ ऋ ल ए ऐ. प्रो. प्रो. इन नव स्वरों को मिला देता है। ऐसे
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy