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________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि मंप नेगलोर-दिल्ली पाकुलित रहता है इस प्रकार यह किसी भी ऋद्धि की इच्छा से आकुलित रहा वे अपने रस सिद्धि की कठिनता और उसके लिए किये गये परिश्रम का नहीं रहता। यहां उपयोगी होने से श्रीभर्तृहरि पौर शुभ चंद्रो चार्य का कथानक । बार बार बसान करते हुए उलाहना देने लगे। लिख देना उचित है । एक राजा के दो पुत्र थे, एक का नाम भर्तृहरि और दूसरे। यह देखकर शुभचन्द्र तो जमीन पर से धूलि चुटकी में उठाई और' का नाम शुभचन्द्र या संसार की दशा का विचार कर दोनों वैरागी हो बनवासी शिला पर डाल दी जिससे सम्पूर्ण शिला सोने की बन गई और भाई भतृहरि हो गये । मतं हरि रस प्रादि ऋद्धियों के साधन करने वाले गुरु के शिष्य हो से बोले कि--भाई ! तुमने अपने इतने समय को व्यर्थ ही रस सिद्धि के फेर में गये और शुभचन्द्र किसी भी ऋद्धि को न चाहने वाले प्रात्म योगी वीतराग पड़कर गवा दिया । सोने से इतना प्रेम या तो अपने राज महल में वह क्या साधु के शिष्य बने । भर्तृहर ने बहुत वर्षों की साधना के बाद रस ऋद्धि को। कथा । कम था । वह वहां अपरिमित था। उसे तो प्रात्म गुण की पूर्णता प्राप्त करने प्राप्त को अर्थात् इस-पारद को सिद्ध कर लेने के कारण सुवर्ण बनाने लगे। नाम के लिए हम लोगों ने छोड़ा था । आत्मसिद्धि हो जाने पर वह जड़ पदार्थ अपने निरा एक दिन उन्हें अपने भाई का ख्याल पाया कि मैंने तो रस सिद्धि प्राप्त किस काम का है? इसलिए यह सब छोड़कर बात्म सिद्धि में लगाना उचित है। करलो है और मेरे भाई ने क्या सिद्ध किया है इसलिए एक शिष्य को शुभचंद्र है शुभचन्द्र की यह यथार्थ बात सुनकर भर्तृहरि को यथार्थ ज्ञान होगया की तलास में भेजा। इधर उधर खोजते हुए शिष्य ने शुभचंद्र को दिगम्बरमौर बेदिगम्बर वीत रागी यथार्थ साप बन गये। (वस्त्र आदि के प्रावरण से रहित) वेप में देखा और मन में सोचा कि हमारे । है इसीलिए योगी आत्मसिद्धि करते हैं और इस सिद्धि की तरफ लक्ष्य गुरु के तो बड़े ठाठबाट हैं परन्तु इनके शरीर पर तो बस्त्र तक नहीं हैं। प्रस्थिमात्र शेष हैं, माहारादि भी नहीं मिलता। इस तरह मन में दुःखित हो शिष्य । नहीं करते ११०५॥ गुरु भर्तृहरि के पास लौट गया और सब वृत्तान्त कह सुनाया। रस सिद्धि जब नहीं चाहते तब काम देव का प्रभाव उनपर पड़ ही कैसे भतृहरि ने अपने भाई की यह दशा सुनकर सिद्ध रस तू बड़ी में भरप अपने भाई की यह दशा मतकर मिल रस पीने भर सकता है ? पर्थात् कामवासना उनको नहीं सताती ।१०६ मेजा और कहलाया इससे मन चाहा सोना बनाकर वस्त्र आहार आदि आवश्यक योगी उस समय नवीन नवीन पदार्थों का ध्यान में चितवन करता वस्तुओं को प्राप्त करना ।। है।०७। क्षुधा प्रादि परिष है पर विजय करते हुए शरीर से दंडित करता शिष्य सिद्ध रस से भरी नुम्बडी लेकर शुभचंद्र के पास पतंचा और गरु ।।१०८। कोति देने वाले चारित्र में स्थिर रहना है ।१०६। पर द्रव्यों का वक्तव्य कह सुनाया। शुभचंद्र ने यह सब मना, मन में भत हरि की बदि पर की फक कर पृथक कर देना है।११०। दिखावटी प्रेम से रहित होता है।११॥ दया भाव किये पीर शिष्य से कहा कि इस रस को फेंक दो तो बह धम साध्य इसी प्रकार के ऋषि रूप को धारण करने वाले भद्र देही होते सिद्ध रस को इस प्रकार निरर्थक फेंकने के लिए राजी न हया । परन्तु बापिस है।११।। रस को ले जाने से गुरु नाराज हो जायेंगे इस बात से इसको शिला पर फेंक देना इस मध्य लोक की पृथ्वी पर रहकर भी पात्म रूपी भूबलय में रहता पड़ा । वापिस लौटकर अब गुरु भतहरि से सब वृत्तांत कहा तो वे बड़े दुःखित है अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वभाव में रत रहता है ।११३॥ हुए और स्वयं भाई के पास पहुंचे। शुभचन्द्र को अत्यन्त दुर्वल देखकर विश्व से ख्याति को आत्मा को फैलाने वाले मंगल प्राभूत में रहता आश्चर्य में आ गये और सिद्ध रस लेलेने का आग्रह करने लगे। भत हरि की । है ।११४॥ भ्रांति को दूर भगाने के उद्देश्य से शुभचंद्र ने रस भरी तूंबडी पत्थर पर पटक विशेषार्थ:-समस्त मंगल प्राभूत में २०७३६०० अक्षर अंक है वे ही दो जिससे सब रस फैल गया । अब तो भर्तृहरि के हाहाकार का ठिकाना न । पुनः पुनः धुमा फिरा कर समस्त भृवलय में प्रयुक्त हुए हैं इसलिए भूवलय ही
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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