________________
सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिली सिद्ध हो जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो जाने से स्वयं ही कमनीय मर्दन, कपड़े लत्त, कोट कम्बल इत्यादि अनेक प्रकार के चीजों की जरूरत पड़ती हो गया ।
है। जब वह संसारी जीव मुनि वत धारण करता है तब उसे अपनी पात्म रक्षा ऐसे गुण विशिष्ट कौन हैं ? तो कहना होगा कि वे युग के प्रारम्भ में करने के लिए शरीर की रक्षा करना पड़ता है। अनादि काल से शरीर रूपी होने वाले गोम्मटेश्वर के पिता जगद् गुरु ग्रादिनाथ भगवान हैं ।६।
कारागृह में बन्धे हुए प्रात्मा को बाहर निकाले बिना उसकी सेवा नहीं हो सकती घे सबसे महान हैं तो भी सबसे सूक्ष्म हैं ।८७
क्योंकि शरीर की सेवा वास्तविक सेवा नहीं है क्योंकि उसकी सेवा जितनी अनन्त गुणों के स्वामी होने के कारण वे महान है ।।
ही अधिक की जाती है उतनी ही और आकांक्षा दिनों दिन बढ़ती जाती है पर क्षेत्र और माला की परिधि से रहित हैं ।।
यदि आत्मा की सेवा एक बार भी सुचारु रूप से हो जाय तो पुन: कभी भी अनन्त प्रकवलय मे वेष्टित हैं अर्थात् इनके अनन्त गणों को अनन्त उसकी सेवा करने की पावश्यकता नहीं पड़ती। अतः आत्मा को शरीर से मुक्त अंकों के बलयों से ही जान सकते हैं ।
करला ही यथार्थ सेवा है ॥१३॥ महत सय में ऋषियों का भामा, पूरा ज्ञान साम्राज्य प्राप्त ।
तिल मात्र भी भयभीत न होते हुए जब ध्यान में रत होकर नयमार्ग था, योर चारित्र में लीन थे इसलिए परमौदारिक देह में रहने पर भी देश के को म छोड़ने वाले नियम से प्रात्मा में रत होने वाला योगी ध्यानाग्नि के द्वारा विकारों से अलिप्त थे इसीलिए उन्होंने अन्त में देह बन्ध को तोड दिया अनन्त कालीन पापकी निर्जरा करले, इसमें क्या पाश्चर्य है ? अर्थात नहीं है।
जिनका मन अपने पात्म सम्पत्ति में लीन है वह हमेशा भगवान । निर्भय होकर योगी नये मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। नियम से जिनेश्वर के समान प्रक्षुब्ध अर्थात् राग रहित बीतरागी होकर अपने प्रात्मानु- आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन होता है तब ध्यानाम्नि द्वारा अनन्त राशि भव में लीन रहता है। इस प्रकार से अक्षुब्ध आत्मानुभव में रत रहने वाले । संचित पाप कर्मों का नाश कर देता है । इसमें कुछ भी आश्चर्य नही है ।१४। के अत्यन्त निबिड कर्मों की अनन्त निर्जरा होती है।
श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है किॐ नमः सिद्धन्यः
योगी समस्त मदों से दूर रहकर व्यवहार और निश्चय दोनों नय मार्ग विवेचन
का आश्रय लेता हुमा स्व वशीकृत खङ्गासन अथवा पदमासन से ध्यान में रत श्री कुमुदेन्दु पाचार्य ने इस श्लोक में शुद्धात्म रत ध्यानी योगी के होता है और तब स्वरस से परिपूर्ण हो जाता है । ६.५॥ योग सामर्थ्य का वर्णन इस प्रकार किया है कि ज्ञानो योगी के शरीर होने पर स्वरस में परिपूर्ण हो जाने पर अपने वशीभूत हुए मार्ग का ही चितवन भी न होने के समान है, कारण यह है कि जिस योगी का मन सदा अात्म- करता है ।९६. सम्पत्ति रूपी सम्पदा में मग्न रहता है वह हमेशा वीतराग जिनेन्द्र भगवान के स्वसमाधि में स्थिर हो जाता है ।१७। स्व में सम्पूर्ण हो जाता है । समान अक्षुब्ध है, ऐसे शुद्धात्म अनुभव में रहनेवाले योगी के अनादि काल से । समस्त मिथ्या मार्गों को छोड़ देता है । पूर्वकृत अपराधों को बहा देता . लगे हुए अत्यन्त कठिन कर्मों के पिघलने में क्या देरी है ? अर्थात् कुछ नहीं। । है ।१००। कर्म रूपी दंड को जला देता है । १०१५ नवीन दीक्षित को जैसे
इसप्रकार श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य ने यहां तक सिद्ध भगवान तथा अर्हत । आनन्द का अनुभव होता है वैसा प्रानन्दानुभव होने लगता है ।१०२। यश को भगवान के गुणों का वर्णन किया । अब १३ तिरानवे श्लोक से प्राचार्यादि पैदा करने वाले लक्ष्य को सिद्ध कर लेता है ।१०३ नवीन गुणों की वृद्धि से तीन परमेष्ठियों के स्वरूप का वर्णन करेंगे।
युक्त होता है ।१०४। इस सिद्धि की इच्छा से रहित होता है। संसारी जीव को अपने शरीर की रक्षा करने के लिए तेल, साबुन, ।
भावार्थ-संसारी जीव जिस प्रकार नाना ऋद्धियों की इच्छा से