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________________ सिरि भूवनय मर्षि सिदि संघ,बैगलोर-दिल्ली नाम से दंडकारण्य प्रचलित हुआ। वह राज्य कर्णाटक के दक्षिण भाग में है। इसमें जो प्रारणावाय ( आयुर्वेद ) विभाग है वह भल्लातकाद्रि अर्थात् प्राचार्य कुमुदेन्दु के समय में इसे वनवासी देश कहते थे। उस समय में चत्त गुरु सुगे" (मिलापता परमन मुनियों द्वारा लिखा गया है ।२२८) (चतुः स्थान) तथा वे दंडे (द्विपाद) इन दो नमूने का काव्य प्रचलित था । बे- इस विभाग में संसार की कल्याणकारी समस्त प्रौषधियाँ निकल कर दंडे काव्य का नमूना श्री कुमुदेन्दु आचार्य ने १२ वें अध्याय के ३१ वें श्लोक में ! भा गई हैं ।२२६। निर्दिष्ट किया है पीर "चत्ताण" काव्य भी समस्त भूवलय का सांगत्य नामक इस अन्य के अध्ययन मात्र से पाप कर्मों द्वारा उत्पन्न सम्पूर्ण रोग छन्द है। । नष्ट हो जाते हैं ।२३०॥ यह भूवलय श्री जिनेन्द्र देव का वचन है ।२१७। इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से आगन्तुक सहस्रों व्याधियां विनष्ट हो जाती की पद्धति से देखा जाय तो यह भूवलय अष्टम जिनेन्द्र श्री । है । इस लिये यह महा सौभाग्यशाली ग्रन्थ है ।२३२१ चन्द्रप्रभ भगवान के द्वारा प्रतिपादित किया गया है ।२१॥ यह भूवलय भगवान् का वचन रूपी महान् अन्थ है ।२३३। इसी प्रकार यह भूवलय श्री शान्तिनाथ भगवान का मार्ग भी है ।२१।। भूवलय की व्याख्या में ३ क्रम हैं १ ला स्वसयम वक्तव्यता, २ रा परविवेचन:-श्री शान्तिनाथ भगवान् अगणित पुण्य शाली हैं। श्री ऋषभ । समय वक्तव्यता तथा ३ रा तदुभय वक्तव्यता है। इन तीनों वक्तव्यों में प्रधान नाथ तीर्थकर भगवान भरत जी चक्रवर्ती तथा बाहुबली स्वामी कामदेव पद के ! स्व-समय है। सद्धर्म सागर में गोता लगाने वाले रसिक जनों के लिये यह परमाघारी थे। किन्तु श्री शान्तिनाथ भगवान् अकेले तीर्थकर, चक्रवर्ती तथा कामदेव नन्द दायक है। इस अध्याय में अध्यात्म सर्वस्व सार प्रोत-प्रोत भरा.हमा है। तीनों प्रकार के वैभवों से संयुक्त थे। अतः वे बहुत बड़े पुण्यात्मा कहलाते हैं।। इसलिये यह मंगल प्राभृत नामक भूवलय का प्रथम भाग प्रसिद्ध है ।२३४॥ उनके द्वारा प्रतिपादित प्रशस्त मार्ग भी इस भूवलय के अन्तर्गत है। विवेचन-यात्म-तत्त्व का विवेचन करना स्वसमय वक्तव्यता है, इसके यह "वेदंडे" काव्य श्री ऋषभनाथ भगवान के समय से पाया हया अतिरिक्त बाह्य शरीरादि का विवेचन करना पर-समय वक्तव्यता है तथा दोनों है ।२२० का साथ २ विवेचन करना तदुभय वक्तव्यता है। श्री बाहुबली स्वामी अत्यन्त सुन्दर थे। उसी प्रकार यह भूवलय काव्य नौ अंक से आया हुआ अर्थात् कर्म सिद्धान्त गणित से अवतार लिया हुना भी परम सुन्दर है ।२२१॥ धर्माक्षर रूपी यह अंक ध्यान है। इसयिये यह भूवलय काव्य स्व समय रूप, इस भूबलय में विश्व का समरत सिद्धान्त भित है २२२। भद्ररूप तथा मंगल स्वरूप है ।२३५॥ यह काव्य श्री जिनेन्द्रदेव की वाणी में विद्यमान समस्त भावों को प्रदान । करने वाला है 1२२३ यह भूवलय ग्रन्य श्री जिनेन्द्र देव की वाणी से निपन्न होने से प्राभूत तथा यह भूवलय भाव प्रमाण रूप काव्य है ।२२४। विश्व काव्य है। इसका स्वाध्याय करने से मोक्ष पद प्राप्त हो जाता है और यह श्री जिनेन्द्र देव का भाव प्रमाण है।२२५॥ मोक्ष के लिए सरल मार्ग होने से यह अतिशय धवलरूप है ।२३६।। समस्त विश्व के अन्दर जितने भी तीर्थ है उन सबका वर्णन इस काव्य जिस प्रकार श्री जिनेन्द्र देव के ८ प्रातिहार्य होते हैं उसी प्रकार नन्दी में दिया गया है ।२२५॥ । पर्वत भी ८ विभागों से विभक्त होने से अष्टापद पर्वत कहलाता है। अष्टम यह भूवलय काव्य वनवासी देश के तीर्थ मन्दी पर्वत पर लिखा, जिनेन्द्र देव श्री चन्द्रप्रभ का वैभव होने से यह अतिशय-धवल नामक शुभ्रांग गया ।२२७ है ।२३७। ।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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