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________________ सिरि मूवलय सर्वार्थ सिवि संघ बेगलोर-दिल्ली यह गणित शास्त्र इस विश्व व्यापक भूवलय काव्य के अन्तर्गत है। महांक राशि को श्रेणी कहते हैं। उन श्रेणियों को छोटे अंक से अतः गुरु श्रेष्ठ श्री वीरसेनाचार्य का शिष्य में (कुमुदेन्दु मुनि) इस गणित / घटाकर भाग देने की विधि भी इस भूवलय में बतलाई गई है। • शास्त्रमय मूवलय काव्य की रचना करता हूं ।७३। इसके साथ साथ इसमें महान् अंकों को महान अंकों द्वारा गुणाकार जिस प्रकार कर्मों का क्षय होता है उसी प्रकार अक्षरों की वृद्धि होती करने का भंग भी है ।८६। रहती है । वृद्धिंगत उन समस्त अक्षरों को गणित शास्त्र में ना करके रानुलोम बहुत दिनों से श्री जिनेन्द्र देव की, की हुई पूजा का फल कितना है? प्रतिलोम भागाहार द्वारा मंगल प्रामृत नामक एक खण्ड बना दिया ।७४। वह सब गगित द्वारा मालूम किया जा सकता है 1८७ दुष्कर्मों का कथनाक प्राचीन कन्नडभाषा में रूढ़ि के अनुसार वर्णन ऐसी गणना करते हुए वर्तमान काल में भी पूजा करने का पुण्यबन्ध किया गया था। वह गाढ़ प्रगाढ़ शब्द समूहों से रचित होने के कारण कठिन हो जाता है । था। किन्तु भगवान् जिनेन्द्र देव की दिव्य वाणी ममस्त जीवों को समान रूप संगीत शास्त्र के घंटावाद्य नामक नाद में भी इस भूवलय कागान कर से कल्याणकारी उपदेश प्रदान करती है । इस उद्देश्य से इसे अतिशय बन्ध। सकते हैं ।८।। रूप में बांधकर मत्यन्त सरल बना दिया ७५। दिगम्बर जैन मुनि, जंगलों में तपस्या करते समय इन समस्त विद्यानों ऐसा सुगम हो जाने के कारण सर्व साधारण जन इस समय इस भवलय को सिद्ध किये हैं 1801 का स्तुति पाठ सुमधुर शब्दों में प्रसन्नता पूर्वक गान करते रहते हैं ।७६। धान के ऊपर का मोटा छिलका निकाल देने के बाद चावल के ऊपर मूवलयान्तर्गत इस अद्भुत गणित शास्त्र को देखकर विद्वज्जन पाश्चर्य एक हल्का बारीक छिलका रहता है। उस बारीक छिलके को कूटने से जो चकित हो जाते है ।७७। सूक्ष्म कण तैयार होते हैं उन करणों की गणना करके दिगम्बर जैन मुनि यह गरिंगत शास्त्र युगल जोड़ियों के समूह से बनाया गया है ।७ अपने कर्म कणों को भी जान लेते हैं ।।१ ।। इन युगलों को जब परस्पर में जोड़ते जाते हैं तब अपने पुण्याङ्ग का। यह भूवलयान्तर्गत गरिणत शास्त्र अन्य गणितों से अकाट्य है ।१२। भंग भी निकलकर या जाता है ।७९। इस गणित मे किये हुए पुण्य कर्मों की गणना भी कर सकते हैं।९३। जोड़ने के समय में ही लब्धांक पा जाता है 1000 यह परम्परागत रूढ़ि के पागम से पाया हुआ सूक्ष्मांक गणित है ।९४। यह परिणत शास्त्र द्वादशांग वाणी को निकालने के लिए गूढ़ रहस्यमय । यह परमाणु भंग भी है और वृहद् ब्रह्मान्ड भंग भी। इसलिए इसकी समानता अन्य कोई गरिगत नहीं कर सकता ।५। सांगत्य नामक सुलभ छन्द होने के कारण यह भूवलय मूढ और प्रौढ़ : परम प्रगाढ़ भक्ति से अध्ययन करनेवाले भव्य भक्तों के अंतरंग में दोनों के लिए सुगम है 1८२॥ झलकने वाला यह गणित शास्त्र है।९६! यह भूवलय प्रगाढ़ रहस्यों से समन्वित होने पर भी अत्यन्त सरल पुण्योपार्जनार्थ एकत्रित होकर परस्पर में चर्चा करनेवाला यह भूवलय है ।। ग्रन्थ है 181 सुन्दर शब्दों में गान किये जाते हुए इस भूवलय ग्रन्थ को अत्यन्त I नामकर्म में अनेक उत्तर प्रकृतियां हैं। उनमें एक यश कीर्ति नामक उत्कण्ठा से श्रवण करने के लिए दौड़कर आये हुए श्रोतागण पुण्यबन्ध कर । प्रकृति भी है। उस प्रकृति का उदय यदि जीव में हो जाय तो सर्वत्र प्रशंसा लेते हैं 100 हो जाती है। सामान्य जीव प्रशंसा प्राप्त हो जाने से गवित हो जाते हैं; किन्तु
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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