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________________ सार भूषजय मार्य सिद्धि संघ बंगलोड़ दिल्ली होने वाले उपसर्ग तथा धूप सर्दी बरसात इत्यादिक परीषहों को सहन करते। अब आगे केवली समुद्घात का वर्णन करते हैं:हुए मन में विचार करता है कि जैसा मैंने पूर्व जन्म में कर्म किया था उसी के । अरहन्त परमेष्ठी के जो चार अधातिया कर्म शेष रह जाते हैं उनमें से अनुसार पाप का उदय आकर मुझे फल देकर जा रहा है। इसे तो मुझे एक प्रायु कर्म को स्थिति कुछ न्यून तथा नामादि कर्मो को स्थिति कुछ अधिक आनन्द के साथ सहन कर लेना चाहिए। ऐसा विचार कर वे मुनिराज एक दम होती है तो वे अरहन्त परमेष्ठी अपनी ग्रायु के शेष होने में अन्त मुहूतं बाकी रहने उपशम श्रेणी पर चढ़ जाते हैं । तब इस मुनि को आकाश में गमन करने तथा । पर केवली समुद्घात करना प्रारम्भ करते हैं । सो प्रथम एक समय में अपने आत्मजल के अन्दर गमन करने की ऋद्धि प्राप्त होती है तथा इन्हें यहां पर्वत के प्रदेशों को चौदह राणू लम्बे और अपने शरीर प्रमाण चौड़े ऐसे दण्ड के प्राकार शिखर पर भूमि के अन्दर एवं आकाश मार्ग में गमन करने की शक्ति उत्पन्न । में कर लेते हैं । फिर एक समय में उन्हीं आत्म प्रदेशों को पूर्व से पश्चिम वातहोती है। ऋद्धि के मोह से दूसरे सासादन गुणस्थान में गिर जाता है। वलयों के प्रान्त तक फैला लेते हैं कपाट की तरह । इसके बाद एक समय में वह मुनि दन पूर्व तक जिन बाणी का पाठी होकर भी फटे हुए घड़े आरम-प्रदेशों को उत्तर से दक्षिण में फैलाते हैं जिसको प्रतर कहा जाता के समान होता है अतः यह भिन्न दश पूर्वी या भिन्न चतुर्दश पूर्वी कहलाता है। है। इसके भी बाद में एक समय में उन्ही पात्म प्रदेशों को वातवलयों तक में भी ऐसे लोगों को महान् प्राचार्य नमस्कार नहीं करते । व्याप्त करके लोकपूर्ण कर लेते हैं इस प्रकार चार समयों में करके फिर इसी अब जो क्षपक श्रेणी प्राप्त कर आगे बढ़ने वाला अपूर्व करण गुणस्थानी 1 क्रम से चार समयों में अपने प्रात्म-प्रदेशों को वापिस स्वशरीर प्रमाण कर जीव है वही वास्तविक अपूर्व करगा वाला होता है क्योंकि वह पागे पागे अपूर्व लेते हैं ऐसे पाठ समय में केवलि समुद्घात करते हैं। इस क्रिया से नामादि तीन यानी पहिले कभी भी प्राप्त नहीं होने वाले ऐसे परिणामों को प्राप्त होता। अपातिया कर्मों की स्थिति घायु कर्म के समान हो जाती है। इसको स्पष्ट करने हुमा अविच्छिन्न गति से बढ़ता चला जाता है। और वही अभित्र दशपूर्वी या के लिए कुमुदेन्दु आचार्य ने दृष्टान्त देकर समझाया है कि जैसे गीले कपड़े को लिए • अभिन्न चतुर्दगपूर्वी होता है, उसी को महात्मा लोग नमस्कार करते हैं। {इकट्ठा करके रखे तो देरी से मूखता है किन्तु उसी को अगर फैला देवें तो वह शीघ्र ही सुख जाया करता है उसी प्रकार प्रारमा भी अपने प्रघातिया को - इसी विषय को गणित मार्ग से बतलाने हुए श्री याचार्य कुमुदेन्दु जो 1 को समान बनाकरके खपाने में समर्थ होता है । . ने कहा है कि पाठवां गुग्गुम्यान अपूर्व करण है और उससे आगे जो छः गुण तब अघाति कर्म को नाश कर सिद्ध परमात्मा होना है।६८-७० स्थान हैं उन दोनों को जोड़ने से चौदह होते हैं । अब उन चोदहों को भी जोड़ किसी एक स्थान में विष से परिपूर्ण चारामा ८४ सास्य घड़े रखे हुए देने से एक और चार मिलकर पांच बन जाते हैं। तथा पञ्चम गति मोक्ष है। हैं उनके बीच में एक अमृत भरा हया कलश है। क्रिमी अंघे पुरुप ने आकाश उसी मोक्ष को अगति म्यान भी कहते हैं ॥३६४|| से इच्छित फल को देने वाले चितामणि रत्न को फेंक दिया 131 . अध्यात्म साधन में जो मुनि इस प्रकार आगे बढ़ना चला जाता है यानी बह चितामणि रत्न शुभ भाग्य से उस अमृत कुभ में गिर जाता क्षपक श्रेणी में चढ़ना चला जाता है वह अनादि काल में खाये हुए अपने है, उसी प्रकार चौरासी ला जीव-योनि इस जगत में हैं। उसके भीतर अमृत स्वातन्त्र्य को क्षण मात्र में प्राप्त कर लेता है ।।६।। 1 से भरे हुए कुभ के समान एक मनुष्य योनि ही है। उस मानव योनि में पूर्व तब संसार का प्रभाव हो जाता है ॥६६॥ जन्म में किये हुए अल्पारंभ परिग्रह रूपी शुभ कर्मोदय से अंघे मनुष्य के हाथ अन्तिम भव का मनुष्य देह दूर होकर आत्मा अशरीरी बन जाता है। से गिरे हुए रत्न के समान मनुष्य देह रूपो अमृत कुभ में भद्रता पूर्वक जीव अथवा यों कहो कि शरीरी होते हुए अमृत ही रहता है ।६७) I गिर जाता है । यह मनुष्य भव कैसा है ? सो कहते हैं :
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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