________________
सिरि भूषलय
सधि सिदि संघ बैंगलोर-दिल्ली शील होकर लोक के अग्रभाग पर विराजमान होने की इच्छा से ज्ञान युक्त कभी दिखने वाला कभी प्रावरण में छिप जाने वाला यह योगी ॥३२॥
चारित्र मुनियों के योग-मार्ग के द्वारा पाया है उस चारित्र का सार नामक अन्तर श्लोक
भूवलय है ॥५३॥ हितानुभव के बाद ॥ ३३ ॥ अतिशय शिव भद्र सौरव्य ।। ३४ ।। ऐसे चढ़ते पढ़ते सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक चढ़ जाता सर्वदा अभ्यास में रत रहने की बुद्धि । ३५। हित करने वाले निर्मल चारित्र है ॥५४॥ । ३६ वीर्यान्तराय के नाश हो जाने पर । ३७ । दर्शन मोहनीय के नाश
खाने पीने तथा चलने फिरने के व्रत नियम इत्यादि में जो व्यवहार हो जाने पर । ३८ । अथवा मोहनीय के उपशम हो जाने पर । ३६ । अथवा
चारित्र है ऐसा चरित्र यह नहीं है । यह केवल शुद्धात्म योग रूपी सार से उत्पन्न मोहनीय के क्षय हो जाने पर आत्मा । ४० । हित कारक शुद्धात्म स्वरूप ।४१)
होकर पाया हुआ सार-यात्म चारित्र है ॥५५॥ प्रशस्त सम्यक्त्व का सार । ४२ । स्वसंवेदन का और विराग । ४३ । अतिशय
अर्थात् यह आत्म योग के साथ प्राने वाला अद्भुत प्रात्म-वैभव सबल विराग । ४४ । वही हितकारक अपने स्वरूप। ४५ । में लीन पात्मा।
रूपी योग सार है॥५६॥ । ४५ । अथवा इसी स्वरूपाचरण में योगी रत होता है । ४७
लोकाग्र तक चढ़ जाने के लिए यही मार्ग है ।।५७॥
इसी मार्ग से सरलता पूर्वक चढ़ते हुए जाने से कषाय का नाश होता गुरुजनों के द्वारा जो आचरण करने का सार है वही देश चारित्र का ॥५॥ अंश है। देश चारित्र में प्रत्याख्यान का उपशम होने से अथवा क्षयोपशम संसार को बढ़ाने वाला प्रत्यंत शूरवीर एक कषाय ही है । उस कषाय से मनियों के प्राचरण करने योग्य सकल चारित्र प्राप्त होता है । ४८ । सुगम को नाश करने वाला यह शुद्ध चारित्र योग है ।।५।। रीति से प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होकर देशा चारित्र का जो
यह रास्ता शुद्ध है और इसमें विशेषता भी है ।।६।। मार्ग है वही सकल चारित्र है । जब सकल चारित्र की प्राप्ति होती है तब
इसी चारित्र का नाम यथास्यात है॥६॥ भूखीर ज्ञानी दिगम्बर मुनि के तीसरे क्रोधादि चार कषायों का उपशम होता
अयोगी चौदहवां गुण स्थान अग्न अर्थात् पंतिम है ॥६॥
जब अहंत भगवान अयोगी कहे जाते हैं तब इस गुणस्पान में अल्प अकल्याणकारी कषाय के उपशम अथवा क्षयोपशम के सतत काल तक स्थित रहता है ॥६॥ उद्योग के फल से क्षय होकर तीन लोक में पूजनीय महावत होता है ।।५०॥
पाठवें अपूर्व करण गुरण स्थान में दो श्रेणी होती हैं, एक उपशम और जब सकल चारित्र होता है तब 'जुग जुरस' अर्थात् वोगा ध्वनि के नाद दूसरा क्षायिक, जब जीव इस आठवें गुण स्थान में प्रवेश करता है तो उसी के समान जुण जुण आवाज करते हुए दिव्य ध्वनि सार का गणनातीत सकल । एक एक क्षण में हजारों २ अद्भुत प्रात्मा के विशुद्ध परिणामों को देखता है । चारित्र उसो क्षण क्षण में महाव्रत रूप उज्वल होकर नाचता हुआ पात्म-योग। ऐसे परिणाम को अनादि काल से लेकर आज तक कभी भी इस प्रकार नहीं उस मुनि में प्रगट होना है ।।५८||
देखा, इसलिए इसका नाम अपूर्वकरण-गुणस्थान है जब यह संसारी मानव अपने को प्राप्त हुए. अध्यात्म के अनुभव से महान सो यथाख्यात | रूपधारी जीवात्मा संपूर्ण संसार या इंद्रिय-जन्य वाह्य और प्राभ्यन्तर समस्त चारित्र उत्पन्न होकर गुणस्थान चढ़ने योग्य परम समाधि रूपी भगवान ! बासनानों को त्याग कर मुनि व्रत धारण करके एकाकी महान गहन जंगल, केवली जिनेश्वर के अत्यंत निर्मल यथाख्यात निर्मल चारित्र प्रगट होता। नदी, समुद्र तट इत्यादि किनारे पर प्रात्म-योग में स्त होकर जब अपने शरीर है ।।५।।
पर होने वाले अनेक परिषह तथा दुष्ट जन, और क्रूरतियंच इत्यादि द्वारा