________________
सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली
कि असंख्यात प्रदेशी है । किन्तु योगियों के ध्यान में पाया हुया सुमेरु पर्वत्र तो विषय को संक्षेप से तीसरे नवमांक बंधन में बांध कर रचा और उसे भी पूर्वोक्त इससे कई गुणा अधिक है, जो कि अनन्त रूप है ॥२३॥
नवमांक में मिला दिया, और जो तीन काल सम्बंधी द्रव्यागम को भिन्न २ उस कल्पित पृथ्वी के ध्यान किये बिना अनन्त का दर्शन नहीं हो। रूप में रचना की गयी थी वह सभी इसी में एकत्रित होकर नवमांक रूप बन सकता ॥२४॥
गयी। यह द्रव्यागम इस भरत क्षेत्र में लगभग अजितनाथ भगवान् के समय तक इस कल्पित पृथ्वी की धारणा मूल पृथ्वी के विना नहीं होती अतः यह । स्पष्ट तथा अस्पष्ट रूप में चला पाया और अंतराल काल में नष्ट-सा हो गया। कथंचित् अति भी है ॥२५॥
पुन: अजितनाथ भगवान ने वृषभनाथ भगवान के कथन को और अनादि कालीन इस विशाल योग में अर्हत् सिद्धादि । देवतायों का समावेश हो जाता | कथन को मिश्रित कर चौथे नवाक पद्धति का अनुसरण करके रचना करते है ॥२६॥
हुए अपने समय के समस्त द्रव्यागमों को पूर्वोक्त क्रम में मिला दिया और संक्षेप जो देवता इसी योग शक्ति के द्वारा अपने अनन्त गुणों को प्रकाश में 1 में अनागत काल में होने वाले समस्त द्रव्यागम को छठवें तथा नववें बंध में लाये हुये हैं ॥२६॥
बांधकर पूर्वोक्त सभी अनादि कालीन द्रव्यागम रूपी नवम बंध में दाँध कर सुर___ इस अद्भुत महत्वशाली योग को हम नवमांक का अादि योग कह । क्षित रक्खा । यह द्रव्यागम संभवनाथ के अंतराल काल तक चला पाया, इसी सकते हैं ॥२०॥
क्रमानुसार सातवें नववे तथा पाठवें नववें भंगादि रूप से भगवान महावीर श्री सनम सिद्ध परमात्म" (सिद्धपरमात्मने नमः ) ऐसा मन में कहते हुए, कुदकुदाचार्य भद्रबाहु स्वामी, घरषेण आचार्य, वीरसेन, जिनसेन और कुमुदेंदु ममकार ही मेरा ग्राम राग है, इस प्रकार अपने मन में भाते हुए द्रव्यागम ! प्राचार्य तक चले आये। इस क्रम के अनुसार कुमुदंदु आचार्य ने अपने समय के बंधन में इसे बांध कर उसी में रमण करने का नाम अमल चारित्र है। । सम्पूर्ण विषय को नवमांक बंध विधि को अपने दिव्य अंक तथा गणित ज्ञान
विवेचन:-यहां कुमुदेंदु प्राचार्य ने इस श्लोक में यह बतलाया है कि के द्वारा रचना कर भूषलय रूप से अनादि कालीन-सिद्ध द्रव्यागममें मिला दिया योगी जन बाह्य इंद्रिय-जन्य परवस्तु से समस्त ममकार अहंकार रागादिक को और अनागत काल के सम्पूर्ण द्रव्यागम को भिन्न नवमांक में संक्षेप रूप से बांध हटा कर इससे भिन्न अपने अन्दर योग तया संयम तप के द्वारा प्राप्त करके कर मिला दिया इसी तरह अतीत, अनागत और वर्तमान के समस्त द्रव्यागस देखे हए शुद्ध प्रात्माके स्वरूपमें प्रीति करते हैं, उसी को अपना निज पदार्थ मान एकत्रित करके सुरक्षित रखने की जो विधि है वह जैनाचार्यों की एक अद्भुत कर परवस्तु से राम नहीं रखते अर्थात् केवल अपने प्रात्मा पर आप ही राग ! कला है। करते और उसी में रत होते हुए द्रव्यागम में उसे बांधकर उसी में रमण करते ।
आत्महित में संलग्न होने के अवसर में योगी अतिशय संपूर्ण विश्व की हैं। इसी को अमल अर्थात् निर्मल चारित्र बताया गया है।
बाह्म और आभ्यंतर दोनों प्रकार की वस्तुओं से अपने ध्यान को हटाकर प्रात्मा द्रव्यागम क्या वस्तु है ?
1 में अत्यन्त मग्न होकर मेरु के शिखर के समान निश्चल स्थित होता है ।॥३०॥ श्रो वृषभनाथ भगवान ने अनादि काल से लेकर अपने काल तक चले
1 आत्महित करने के लिये स्वानुकूल योग धारण करते हुए वह योगी आये हुए समस्त विषयों को उपमुक्त क्रमानुसार नवमांक बंधन में बांध कर ।
बहिरंग और अंतरंग अतिशय को प्रगट करने के लिये सम्पूर्ण विश्व की वस्तुओं द्रव्यागम की रचना की । उसके बाद अपने संयम के सम्पूर्ण द्रव्यागम को विभिन्न विधि से नवमांक पद्धति के द्वारा रचा और पूर्व में कथित नवमांक में बांधकर को भूल कर उत्साह से महान मेरु पर्वत के अग्रभाग पर है ॥३॥ मिला दिया । तत्पश्चात् प्रागे अनागत अनंत समय में होने वाले समस्त द्रव्यागम । मथन किये हुए अध्यात्म योग के वैभव को प्राप्ति के लिए प्रयल