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तीसरा अध्याय
कर्म भूमि के प्रारम्भ काल में श्री ऋषभनाथ भगवान ने भोले जीवों के अपनी यात्मा को जानना भी अनन्त है, यानो उसमें भी अनन्त गुण । प्रज्ञान को हटा कर अध्यात्म योग के साधनीभूत धर्म ध्यान को प्राप्त करा || देने वाला जो प्रक्रम बताया था उसी को स्पष्ट कर बताने वाला यह भूवलय।। यह सब जान कर अपने अन्दर ही देखना भी अनन्त गुण है ॥१०॥ काव्य है ॥१॥
अपने पाप को प्राप्त करना सारे रत्नत्रय का अङ्क (मुख्य स्थान ) है. धी ग्रादिनाथ भगवान के द्वारा प्राप्त हुये उपदेश से अभ्युदय और नि: सो भी पनन्त है।॥१शा श्रेयस का मार्ग जब सरलता से प्राप्त हो गया तब धर्म रूप पर्वत पर चढ़ने के
सरलता से इस अनन्त को संख्यात राशि से भी गिनती कर सकते हैं। लिए उत्सुक हये आर्य लोगों को योग का मङ्गलमय सम्वाद प्रदान करने वाला। उदाहरण के लिए चौबीस भगवान में से प्रत्येक में अनन्त गुण हैं ॥१२॥ . यह भूवलय ग्रन्थ है ।।२।।
इसी रीति से असंख्यात से भी अनन्त को गुग्गा कर सकते हैं ॥१३॥ .. यह मंगल प्राभूत प्राणिमात्र का सातिशय हित करने वाला है। क्यों
तथा अनन्त को भी अनन्त से गुणा किया जा सकता है ।।१४।। . ... कि ज्ञात और अज्ञात ऐसो सम्पूर्ण वस्तुओं को बतलाकर ऐहिक सुख तथा पार
परमोत्कृष्ट शुद्ध चारित्र का अङ्ग यही है ॥१५॥ माथिक सुख इन दोनों को सम्पन्न करा देने वाला है ॥३॥
इन सभी बातों को ध्यान में लेकर अनन्त की रचना की गई है ॥१६॥ यह मंगल प्रामुन मन को सिंहासन रूप बनाने वाला है। तथा काव्यशैली के द्वारा जिन-मार्ग को प्रगट करते हुए अध्यात्म योग को भीतर से बाहर।
महामेरु पर्वत के शिखर पर अधर विराजमान योगिराज अपनी अपूर्व व्यक्त कर दिखलाने वाला है। तथा यह मंगल प्राभृत या भूवलय ग्रन्थ प्रक्षर
योगशक्ति के द्वारा इस अंक की महिमा को देख पाये हैं ||१७|| यहाँ पर योग विद्या में न होकर केवल गणित विद्या में विनिर्मित महा सिद्धान्त है ।।४। ।
शब्द से पृथ्वी धारण समझना, जो कि विशुद्ध चारित्र के अतिशय से उपलब्ध जानना ही ज्ञान है और अन्दर देखना हो दर्शन है। इन दोनों को पूर्ण-
है हुई है ॥१८॥
ए तया सर्वज्ञ परमात्मा ने ही प्राप्त कर पाया है। जानने और श्रद्धान करने के।
जितना चरित्र अंक है उतना ही दर्शन योग का अंक है ॥१६॥ बीच में मिलकर रहने वाला चारित्र है जो कि अनन्त है ।।५।।
ऐसा संयमी महापुरुषों के शुद्धोपयोग ध्यान द्वारा जाना गया है ॥२०॥ - अब पागे अनन्त माटद की परिभाषा बतलाते हैं
यहां पर बताई हुई पृथ्वी धारणा या सुमेरु पर्वत से पृथ्वी या सुमेरुगिरि : अनन्त के अनन्त भेद होते है जिन सब को सर्वज्ञ परमात्मा ही देख न लेकर अपने चित्त में कल्पित सुमेरु पर्वत या पृथ्वी को लेना, जो कि अपने . सकता तथा जान सकता है यौर दूसरा कोई भी नहीं।६।।
। ज्ञान में गृहोत है ॥२१॥ पाप को भी अनन्त के द्वारा नापा जाता है और पुण्य को भी अनन्त के यह भूवलय ग्रन्य भी उन्हीं योगियों के ज्ञान में योग के समय झलका द्वारा नापा जाता है। याद रहे कि आचार्य श्री ने यहां पर अनन्त शब्द से दया। हुपा है । भूवलय ग्रन्थ नवमा से बद्ध होने के कारण अद्वैत है। क्योंकि १ के धर्म को लिया है ॥७॥
बिना नहीं होता और जहां पर । होता है वहाँ १ अवश्य होता है। एवं सब जीवों में श्रेष्ठ श्री सिद्ध भगवान हैं उनको भी अनन्त से नापा । अव त भी अनन्त है ।।२२॥ जाता है ।।
जो पाभिवीय सुमेरु है वह एक लाख योजन परिमित माना गया है जो