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________________ सिरि मूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इले प्रष्ट कर्ममळं निर्मूलवंमाळ्प । शिष्टरोरेद पूर वे काव्य ॥ दृष्टांतबोळगेल्ल वस्तुवसाधिप । अष्टमंगलविह काव्य ॥१५४॥ व नुमन घचनद कृतकारितनुमोद। जिन भक्ति न वाद ॥ गुणकारवेन्नुव गणकरिबंदिह । अनुभव वैभव काव्य ॥१५॥ थळयळिसुद दिव्य कलेगळरवत् नाल्कु। गेलुवंकनम न काव्य ॥ बळेसुत चारित्रव शुद्धगोळिसुत । बळियसारिपदिव्य काव्य ॥१५॥ इळेय पालिप नव्यकाव्य ॥१५७॥ बेळेव सर्वोदय काव्य ॥१५॥ घळिगे वटूटल दिव्य काव्य ॥१५॥ सुळिय बाळेय वन काव्य ॥१६॥ तिळियादसरसाक काव्य ॥१६॥ गिळिय कोगिले दनि काव्य ॥१६२।। यळेवेण्पदनियंक काव्य ॥१६३॥ इळेगादि मनसिज काव्य ॥१६४॥ सुलिवल्ल सुलियद काव्य ॥१६॥ इळेय कळतले हर काव्य ॥१६६॥ बळिय सेरलु व्रतकाव्य ॥१६७॥ गेलवेरिदर व्रत काव्य ॥१६॥ __नलविनध्यात्मव काव्य ॥१६॥ सलुव दिगम्बर काव्व ॥१७०॥ क मांटक मातिनिलि बळेसिह । धर्म मूर्नुररर्व तमूर म्॥ निर्मलवेन्लुत बळिय सेरिपकाव्य । निर्मल स्यावाद काव्य ॥१७॥ त् नगे बारद मातुगळनेल्लकलिसुतम् । विनयदध्यात्म अचल ॥ घनदंकएळ साविरदिन्नुरु तोबत्तु । एनलु अंतराल बरुव ॥१७३॥ ता नल्लिहत्तूवरे साविरअरवत्तारु । रानंदवेरडम् प्र॥ कायद् हदिनंदुसाविरवेळनूर । कारपदनलवत्तनालकंक ॥१७४।। रो दनबेल्लबनळिसुब (मोडिप) सोहं । प्रावि ओंदोंबत्तु बंद प्रासाधिसि मूरु काव्य बकूडिवक्षर। प्रावि जिनेंद्र भूयलयम् ॥१७॥ इस तीसरे 'या' अध्याय में ७२६० अक्षरांक है। अंतर काव्य में १०,५६६ अंकाक्षर है। कुल मिला देने से १७८५६ अंकाक्षर होते है। अथवा पहला और दूसरा अध्याय मिला कर २८७५५ और दस अध्याय के १७८५६ मिलकर ४६६११ अंक हुए । इस अध्याय में पाने वाली प्राकृत गाथा: प्राणेहि अरगन्तेहि गुणे हि जुत्तो विशुद्धचारितो। भवभयदन्जणदच्छो महवीरो प्रत्यकत्तारो॥ संस्कृत श्लोक: अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं एन तस्मय श्री गुरवेन्नमह ।। इस श्लोक में एन के स्थान में व्यंजन "येन" रहना चाहिए था, किन्तु अंक भाषा में स्वर होने के कारण उसे हो रक्खा गया, है या यों समझिये कि घातूनामनेकार्थत्वात् धातुओं के अनेक अर्थ होने से एन, और येन दोनों समान ही है। प्रतः विद्वानों को इसकी शुद्धि न करके मूल कारण का अन्वेषण करना चाहिए। यह भुवलय नामक अपूर्व चमत्कारिक ग्रन्थ सर्वभाषामयी होने के कारण प्रत्येक पेज ७१८ (सात सौ अठारह) भाषाओं से संयुक्त है अतः इस प्रकार व्यतिक्रम यदि आगे भी कहीं दृष्टिगोचर हो तो उसका सुधार न करके मूल कारणों का हो पता लगाना चाहिए । हो सकता है कि पुनरावृत्ति होने के समय यह स्वयं सुधर जाय । (संशोधक)
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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