SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७ सर्वागं 'सद्धि संच बेंगलोर-दिल्ली एसेवन परद्रव्यगळनुम् ॥ ११०॥ असम भुवलयदोहिनु ॥११३॥ यशद मंगलद प्राभृतनु । ११४ ।। लि चितिप आकुलितेय बिट्टु स्वयंशुद्ध रूपानुचरण तस स्थावर जीवहितवन साधिय । ह्सवळिवेल्ल पौगलिक म श्रवनु || बळिसार्द व्याकुलबेल्लव केडियन । कलिलहन्तकनात्मशुद्ध ॥ ल्लवनुसाधिसुतिर्प कालदोळनुराग । दवयवविनिसिल्लदिनु नवनु ॥ भवंद बिडत परद्रव्यदनुरागद् । जयवन्ने चितिसुतिहनु ॥ ११६॥ त ॥ नवमांक गणितदोळ् स्वद्रव्ययरिवनु । भवभय नाशनकरनु विदऴ्तलेयनोडिनु ॥१२२॥ अवनु निरंजनपदनु ॥ १२३॥ श्रव धर्मवरि ।। १२५॥ कविकल्पनेगे सिक्कदिनु ॥ १२६ ॥ नववतु भागिपनेरडिम् ॥ १२८ ॥ भवसागरवनु गुरिणसुव ॥ १२६ ॥ नवस्वगंगळ कूडिसुव ॥१३१॥ नवसिद्धकाव्य नवलय ॥ १३२ ॥ सम्यक्त्य शुद्धवागिसदेन्दु । श्ररिवह वरु गुरुगळ मनके ॥ बरुवन्ते माउलु सिद्धतानवकेम्ब । परम स्वरूपाचरण य् ॥ साध्य असाध्यवेम्बेरउनु तिळिदिह । श्राद्याचार्यरु हितवर् ॥१३५॥ श्री ॥ सहनेय धर्म निराकुलबेन्नव । महिमेयंकाक्षर वारली ॥१२०॥ 2 ॥१३३॥ ।। १३४ ।। च नवकार जपम् ॥१३०|| रुसनमाड़े परद्रव्यंगळ । बरुवा कर्मद बंध | वर रियोळात्मन संसारवि किन्तु । अरहन्त सिद्धरम् द्रो द्यवागिव चारित्रवम् सारिव । रातराचार्य वर हरिवेचन वाणिबंदिह । महिमेयभद्रसौख्यतु रुद्ध नवाद आ निराकुलितेय । सरमागे मंगलबर श् अरहंतदेवर कृपेयु ।। १३८ ॥ ।। १३६ ।। 1179001 ang संख्यात गुणित ॥ १३८ ॥ सरलांकं बुद्धिरिद्धि ॥। १४१ ।। परिपरियतिशय सिद्धि ॥ १४२ ॥ शरणु बंदवर पालिसुव ॥ १४४ ॥ हरदायकबाद वाक्य ॥। १४५ ।। परम सम्यज्ञान निधियु ॥ १४७॥ सरस साहित्यद गणित ॥ १४८ ॥ परमभाषेगेल वरिव ।। १५० ।। अरहंत रोरेद भूवलय ॥ १५१ ॥ वीरमहादववारिणय सर्वस्त्र | शूरदिगंबरमुनियु ॥ सारिद रुगळु दारिवेळ बरुवाग । नरदध्यात्म भूवलय vafaa काव्यसिद्धसंपदकाव्य । श्राशय भव्यभावुक मृ ।। सिभिजित बरुव निर्मलकाव्य श्री शत गणितब काव्य ॥ करुणेय वेरेसिह गरिणतवे गुणिसिह । बरुव दयापर धर्म परमौषध रिद्धिय गणित ॥ १४० ॥ गुरुगळाशिसुतिह सिद्धि ॥१४३॥ परिपूर्ण भरतव सिरियु ॥१४६॥ भरिवु येळन्नदिने दु ॥१४६॥ भ य द न ज म म ह afe दंडित सिय प्रेमव तोरेदिह सिरि भूवलय यशव चारित्रदोकिनु रिसिय रूपिन भद्रदेहि ।। १०८ ।। ॥ १११ ॥ वेळ तलायोग । जयिपपरानुरागवतु ॥ नयव शवदु शाश्वत सुखवेन्दरियुत । असमान शान्तभाववलि || लिबन्द सुखदुःखगळलि श्राकुलितेय | बलवेण्डिहुदेन्द aपद धर्म गरिणतव गुरिणसुत । अवरोळगात्म गौरव यजयवेन्नुत तन्न देहदोळिह । स्वयंशुद्धआत्मन aपढ योगवनबरो रतिथितं । सवियादंकाक्षर सर अवतारविनिसिल्लम्बनु ॥ १२१ ॥ सुविशाल धर्मसाम्राज्य ॥ १२४ ॥ श्रवधरिसुख तत्वगळतु ॥१२७॥ ॥१०६॥ ॥ ११२ ॥ ।। ११५।। ॥ ११६ ॥ ॥। ११७॥ ॥११८॥ २२५२॥ ॥१५३॥
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy