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सर्वागं 'सद्धि संच बेंगलोर-दिल्ली
एसेवन परद्रव्यगळनुम् ॥ ११०॥ असम भुवलयदोहिनु ॥११३॥ यशद मंगलद प्राभृतनु । ११४ ।। लि चितिप आकुलितेय बिट्टु स्वयंशुद्ध रूपानुचरण तस स्थावर जीवहितवन साधिय । ह्सवळिवेल्ल पौगलिक म श्रवनु || बळिसार्द व्याकुलबेल्लव केडियन । कलिलहन्तकनात्मशुद्ध ॥ ल्लवनुसाधिसुतिर्प कालदोळनुराग । दवयवविनिसिल्लदिनु नवनु ॥ भवंद बिडत परद्रव्यदनुरागद् । जयवन्ने चितिसुतिहनु ॥ ११६॥ त ॥ नवमांक गणितदोळ् स्वद्रव्ययरिवनु । भवभय नाशनकरनु विदऴ्तलेयनोडिनु ॥१२२॥ अवनु निरंजनपदनु ॥ १२३॥ श्रव धर्मवरि ।। १२५॥ कविकल्पनेगे सिक्कदिनु ॥ १२६ ॥ नववतु भागिपनेरडिम् ॥ १२८ ॥ भवसागरवनु गुरिणसुव ॥ १२६ ॥ नवस्वगंगळ कूडिसुव ॥१३१॥ नवसिद्धकाव्य नवलय ॥ १३२ ॥ सम्यक्त्य शुद्धवागिसदेन्दु । श्ररिवह वरु गुरुगळ मनके ॥ बरुवन्ते माउलु सिद्धतानवकेम्ब । परम स्वरूपाचरण य् ॥ साध्य असाध्यवेम्बेरउनु तिळिदिह । श्राद्याचार्यरु हितवर् ॥१३५॥ श्री ॥ सहनेय धर्म निराकुलबेन्नव । महिमेयंकाक्षर वारली
॥१२०॥
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॥१३३॥ ।। १३४ ।।
च
नवकार जपम् ॥१३०|| रुसनमाड़े परद्रव्यंगळ । बरुवा कर्मद बंध | वर रियोळात्मन संसारवि किन्तु । अरहन्त सिद्धरम् द्रो द्यवागिव चारित्रवम् सारिव । रातराचार्य वर हरिवेचन वाणिबंदिह । महिमेयभद्रसौख्यतु रुद्ध नवाद आ निराकुलितेय । सरमागे मंगलबर श् अरहंतदेवर कृपेयु ।। १३८ ॥
।। १३६ ।। 1179001
ang संख्यात गुणित ॥ १३८ ॥ सरलांकं बुद्धिरिद्धि ॥। १४१ ।। परिपरियतिशय सिद्धि ॥ १४२ ॥ शरणु बंदवर पालिसुव ॥ १४४ ॥ हरदायकबाद वाक्य ॥। १४५ ।। परम सम्यज्ञान निधियु ॥ १४७॥ सरस साहित्यद गणित ॥ १४८ ॥ परमभाषेगेल वरिव ।। १५० ।। अरहंत रोरेद भूवलय ॥ १५१ ॥ वीरमहादववारिणय सर्वस्त्र | शूरदिगंबरमुनियु ॥ सारिद रुगळु दारिवेळ बरुवाग । नरदध्यात्म भूवलय vafaa काव्यसिद्धसंपदकाव्य । श्राशय भव्यभावुक मृ ।। सिभिजित बरुव निर्मलकाव्य श्री शत गणितब काव्य
॥ करुणेय वेरेसिह गरिणतवे गुणिसिह । बरुव दयापर धर्म परमौषध रिद्धिय गणित ॥ १४० ॥ गुरुगळाशिसुतिह सिद्धि ॥१४३॥ परिपूर्ण भरतव सिरियु ॥१४६॥ भरिवु येळन्नदिने दु ॥१४६॥
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दंडित
सिय प्रेमव तोरेदिह
सिरि भूवलय
यशव चारित्रदोकिनु रिसिय रूपिन भद्रदेहि
।। १०८ ।।
॥ १११ ॥
वेळ तलायोग । जयिपपरानुरागवतु ॥ नयव शवदु शाश्वत सुखवेन्दरियुत । असमान शान्तभाववलि || लिबन्द सुखदुःखगळलि श्राकुलितेय | बलवेण्डिहुदेन्द aपद धर्म गरिणतव गुरिणसुत । अवरोळगात्म गौरव यजयवेन्नुत तन्न देहदोळिह । स्वयंशुद्धआत्मन aपढ योगवनबरो रतिथितं । सवियादंकाक्षर सर अवतारविनिसिल्लम्बनु ॥ १२१ ॥ सुविशाल धर्मसाम्राज्य ॥ १२४ ॥ श्रवधरिसुख तत्वगळतु ॥१२७॥
॥१०६॥ ॥ ११२ ॥
।। ११५।।
॥ ११६ ॥
॥। ११७॥ ॥११८॥
२२५२॥ ॥१५३॥