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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ, बैंगलोर-दिल्ली इस रोति से दिगम्बर जैन आचार्यों के संघ भेद के कारण काव्य रचना। अतः अर्हन्न भगवान को दिव्य भाषा को विश्वविद्याभाषिणी भी कहते हैं। को पद्धति सरणी तया शैली आदि बदलती रहती है किन्तु यह परिवर्तन हमें इस भूवलय ग्रन्थ में चौंसठ अक्षर होने के कारण विश्व की सर्व विद्यानों की यहां इष्ट नहीं है अपितु भगवान ऋषभनाथ ने अपनी सुपुत्रो सुन्दरी को जो प्रभा निकलती है। इसलिये विविध भाषाओं को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने मंक में कमो न बदलने वाली अंक विद्या सिखलाई थी, वही अंक विद्या हमें यहां इष्ट | बद्ध कर दिया है ॥१२२॥ है।
स्वर्गों में प्रचलित भाषा को दिव्य भाषा कहते हैं। उन सब माषाओं क्योंकि नवमांक विद्या सदा एक हो रूप में स्थिर रहती है, इस कारण की एक राशि बनाकर के गणित के बंघ से बांधते हुए जिनेन्द्र देव की दिव्य अनुलोम प्रतिलोम पद्धति द्वारा नवमांक से भूबलय सिद्धान्त को रचना हुई। वाणी सात सो भाषाओं में मिलती हुई धर्मामृत कुम्भ में स्थापित हुई है ॥१२३॥ है ॥४॥
I इस कुम्भ में समावेश हुई सब भाषामों में रहने वाले पदों को गुणा नगत में प्रचलित हजारों भाषायों को रहने दो । भगवान महावीर की। करके बुद्धिमान दिगम्बर जैन ऋषि जब अठारह भाषा के लिपिवद्ध के महत्व को वाणी नवमांक में व्याप्त होने के कारण नवमांक पद्धति से ७१८ भाषामों का तपोवन में अध्ययन करते हैं नब उनके हृदय को शान्ति मिलती है ।।१२४॥ प्रनट होना क्या आश्चर्यजनक है ? ॥१०॥
____ इन महिमामयी लिपियों को अपने हाथ में लेकर महा ऋद्धि-प्राप्त इसी प्रकार ऊपर कहे अनुसार '४६ भाषाओं के अलावा और भी भाषा।
ऋषियों ने सुन्दर काव्य रूप बनाया है। वर्तमान प्रतीत और अनागत काल में तथा लिपि कुमुदेन्दु प्राचार्य उद्धृत करते है--
होने वाली सब भाषाओं के अंक इसमें हैं ॥१२॥ हंस, भुत, वोरयक्षी, राक्षसी, ऊहिया, यवनानी, तुर्की, मिल, संवव, किस भाषा में कितने अंक है मौर कितने प्रदार हैं इन सब को एक मालवणीय, किरीय, नाह, देवनागरी, वैविध्यन, लाड, पारसी, प्रामित्रिक, साए प्राचार्य जी ने कैसे एकत्रित किया। इन वांकानों को समन्वय रूपारमक भूवलयक, चाणक्य, ये ब्राह्मी देवी की मूल भाषायें हैं। ये सभी भाषाय था। सिद्धान्त रूप से उत्तर कहने वाला यह भूवलय ग्रन्थ है ॥१२६॥ भगवान महावीर की चाणो से निकल कर भूवलय रूप बन गयी है।
इस भूवलय ग्रन्थ में सर्वोपरि रहने वाला जो नौ अंक है, वह विश्व का यह सुन्दरी देबो का भूवलय है ॥११०, १११, ११२, ११३, ११४, १
ग्राधिपत्य करने वाला है ॥१२७॥ ११५, ११६, ११७, ११८, ११६, १२० ।
श्री भगवान महावीर को अनक्षरी वारणी इन्हीं नो अंक रूप में . इस संसार (विश्व) में सात सौ क्षुद्र भाषाएँ है, उन सब भाषानों की । लिपि नहीं हैं । शेष भाषायों को बोलने वाले कहीं किसी प्रदेश में रहने वाले ! थी ॥१२॥ हैं। किसी देश में क्षुद्र भाषा बोलने वाले प्राणी नहीं हैं जहां हों वहां भाषा भी
1 शंका अनेक प्रकार की होती है । शंका में शंका ही उत्तर रूप से अर्थात् उत्पन्न हो सकती है। जो भाषा जहां उत्पन्न होने वाली है उसको वहां के प्राणी पूर्ण से उत्तर न मिलने वाला और उत्तर मिलने वाला इत्यादि रूप से अनेक जान सकते हैं। क्योंकि यह भूबलय अन्य त्रिकालवर्ती चराचर बस्त को देखने । समाधान होते हैं। उन सबका ।।१२६।। वाले महावीर भगवान की वाणी से निकला है। इसलिए इससे जान सकते है जिस जगह में शंका उत्पन्न होती है उसी जगह में समाधान करने वाला हैं ॥१२॥
। यह भूवलय ग्रन्थ है ।।१३०॥ अर्हन्त भगवान की वाणी को सर्व-भाषामयी भाषा कहते हैं। सम्पूर्ण इस भूवलय में स्वसमय-वक्तव्यता, परसमय-वक्तव्यता और तदुभवजनत में जो भाषाएँ है वे सभी भगवान महावीर की वाणी से बाहर नहीं। वक्तव्यता ऐसे तीन प्रकार को वक्तव्यता का अर्थ प्रतिपादन करना है । स्वसमय