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सिरि भूवलय
प्रबल इच्छा मन में प्रगट होने के बाद विषय वासना कभी रह नहीं सकती। किंतु इस जिन रूप का स्पष्टीकरण ही इस भूवलय में है ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते हैं। इसलिये इसकी प्राप्ति के लिये गोमटदेव ने संपूर्ण मानव को सुखकारी भूवलय ग्रन्थ की रचना को हैं ।
वृषभदेव तीर्थंकर कृत युग के आदि में संपूर्ण साम्राज्य पत्र भरत चक्रवर्ती को देकर तपोवन को जाने के लिये जब उद्य क्त हुए थे नव अपने शरीर के संपूर्ण आभरणों को प्रजाजनों को अर्पण कर दिया था । उस समय उनके शरीर पर कुछ भी शेष नहीं रह गया था। तब ब्रह्मचारिणी युवती ब्राह्मह्णे व सुन्दरी नामक दो देवियों अर्थात् भरत चक्रवर्ती की बहिन ब्राह्मी और बाहुबली की बहिन सुन्दरी देवी दोनों आकर पिताजी से निवेदन करने लगी कि पिताजी ! भाई भरत को तया बाहुबली को तो आपने बहुत कुछ दिया परन्तु हमें कुछ नहीं दिया इसलिये हमें भी कुछ मिलना चाहिए। तब भगवान ने कहा कि वेदियो ! तुम्हें क्या चाहिए अर्थात् तुम क्या चाहती हो ? इस तरह भगवान की प्रश्न करने की आदत यो संसार एक ऐसा अनूठा है कि यदि कोई प्राकर किसी से पूछे तो वह यह नहीं कह सकता कि तुमको क्या चाहिए ? अर्थात् वह कहूंगा कि मेरे पास १०-२० या ५० रुपया है, इसे तुम ले जाओ यही बात कहेगा। परन्तु भगवान की इस तरह भावना नहीं होती। क्योंकि भगवान के अन्दर लोभ कवाय का सर्वथा प्रभाव था तथा उनकी आत्मा के अन्दर स्वाभाविक दान करने की प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रति शंकात्मक उत्तर मिलता है। भगवान के अन्दर यही एक अतिशय है। पिताजी की इस बात से प्रसन्न होकर दोनों पुत्रियाँ लौकिक सम्पति पूछना तो भूल ही गई पर ब्रह्मचारिली होने के कारण वह परलोक के कल्याण निमित्त तथा भविष्यकाल की सर्वजनता के कल्याणार्थ उन दोनों पुत्रियों ने इस प्रकार प्रार्थना की कि:- हे पिताजी ! अभी भरत चक्रवर्त्यादि को आपने जो वस्तु दिया है वह सब कि इंद्रिय जन्य तथा अंत में दुःखदायी है। इस लिए हमें ऐसी वस्तु नहीं चाहिये। हमें आप कोई ऐसी वस्तु दें कि जो
सिद्धिसंघ पोरी
सदा हमारे साथ रहे । तब भगवान ने दोनों पुत्रियों को मरने पास बुलाकर बांई अंक में ब्राह्मी को और दाहिती ग्रंक में सुन्दरी देवी को बिठा लिया । नत्पश्चात् ब्राह्मी से कहा कि पुत्री ! तुम अपना हाथ दिखाओ । पिता की आज्ञानुसार ब्राह्मी देवी ने अपना दाहिना हाथ निकाला | तब भगवान ने अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को अंदर रखकर मुट्ठी बांधकर श्राह्मी की हथेली में बंधे हुए अमृतमय अपने अंगूठे से लिख दिया । ऐसा लिखने का कारण यह था कि जब भगवान का जन्म हुआ तब बालक अवस्था में सौधर्म इंद्र ने तत्काल जनित भगवान के मृदुल मृणाल अंगूठे के मूलभाग में अमृत भर दिया था। इसलिये उस अमृत को उनके अंगूठे के मूलस्थान से लेकर सिंचन करते हुए सर्वभाषामयी भाषाश्री को धारण करनेवाला कर्माष्टक प्रर्थात् आठ प्रकार की कन्नड़ भाषा के स्वरूप को दिखानेवाली लिपि रूप कई अक्षरों को लिखकर कहा कि बेटी आपके प्रश्न के अनुसार अक्षर की उत्पत्ति हुई है। सो अनन्त काल तक रहेंगी। इसलिये यह साथ अनन्त कहलाता है । पहले भोग- भूमि के समय में इस लिपि की आवश्यकता नहीं थी । उसके पहले अनादि काल से अर्थात् सबसे प्रथम कर्म भूमि के प्रादुर्भाव के समय में सबसे प्रथम तीर्थंकरों से आज जैसे ही उत्पत्ति होती आई है। इस दृष्टि से देखा जाय तो तुम्हारी हथेली पर लिखे हुए प्रदार धमा चनन भी कहे जायेंगे। इसलिये कर्नाटक भाषा साधनंत भी है और अनाद्यनंत भी। छठवें काल में ये अक्षर काम में नहीं आने से शांत हो जाते हैं । इस दृष्टि से देखा जाए तो अक्षर आदि और सांत भी हैं। चलकर बताया जाएगा ।
इसका विस्तार भागे इस बात को सुनकर हार्दिक इच्छा पहले से अतः उसे प्राप्त होते यही मत है कि सभी
ब्राह्मी देवी सन्तुष्ट हो गई क्योंकि उसकी यही थी कि हमें कोई अविनाशी वस्तुनि । ही यह प्रयन्त प्रसन्न हुई । अनेक विद्वानों का लिपियों की अपेक्षा ब्राह्मी लिपि प्राचीन है ।
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