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सिरि भूवाय
सर्वार्थ सिद्धि संभ देगलोस्टमासी तथा ऊँचाई इत्यादि सर्व प्रमाण भूवलय में दिया गया है। जैन श्लोक तीसरा :शास्त्र में कोई भी बात अप्रमाणित नहीं होती अर्थात् प्रमाणिक होती इस मनुष्य भव में अतिशय देने वाले तीन पद है। इससे अन्य कोई है। आजकल विमान चढ़ने में दस, बारह सीढ़ी तक एक ही तरफ भी महान पद नहीं है। बीते हुए जन्म जन्मान्तरों में अतिशय पुण्यसंचय लगा देते हैं, परन्तु ममवसरण के लिये चारों ओर हर एक में २१०००
कर सोलह कारला भावना, बारह भावना तथा दस लक्षण धर्म इत्यादि सीढ़ियां होती है । आज के विमानों में चढ़ते समय एक के ऊपर एक
भावनात्रों को भाते हुये पाने के कारण राजा महाराजादिक १८ पांव रखकर चल पाता है दुमका ३ का ५५ का
श्रेणियों को चढ़ते हुये पाने से परम्परा अभ्युदयसुख किसी १८ थेणियों क्रम न होने के कारण इस तरह चढ़ने को आवश्यकता नहीं रहती।। में कहीं भी खंडित न होकर परम्परागत अभ्युदय सुख में सबसे पहले
१ भरत चक्रवर्ती तथा मन्मथ बाहुबली महान् उन्नतिशाली पराक्रमी कामपहली सीढ़ी में पाद लेप औषधि के प्रभाव मे मनुष्य और निर्यच ।
। देव थे । मन्मथ का अर्थ-ईश्वर के ध्यान में ज्ञानाग्नि से शरीर को उसने प्राणी समवसरण भूमि में जाकर भगवान् के सन्मुख पहुंच जाते थे।।
के कारण इसका नाम मन्मथ पड़ा, ऐसा कतिपय विद्वानों का कथन है। यद्यपि यह बात अाजकल की जनता के लिये हास्पकारक मालूम होनी
जिनके शरीर नहीं है वे दूसरे के मन को कैसे आकर्षित कर सकते हैं ? है तथापि श्री भगवान् कूदकदाचार्य तथा श्री पुज्य पाद प्राचार्यादिक
ऐसा कुमुदेन्दु प्राचार्य कहते है। पहले इसी प्रकार की पाद पौषधि का लेप करके आकाश में गमन
कुमुद्देन्दु प्राचार्य ने अपने मुवलय में इस प्रकार कहा है कि जिस करते थे, यह बात उस समय की जनता के समक्ष प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर
समय मनुष्य को पुवेद प्रगट होता है उस समय स्त्रियों के साथ मोग होती थी। पाद औषधि का विधान किस प्रकार करना चाहिये, इस
करने की इच्छा उत्पन्न होनी है। स्त्री वेदनीय कर्म का उदय होने से विधि को भूवलय के प्राणावायु पर्व में पूर्ण रीति से स्पष्ट किया गया
पुरुष की अपेक्षा और नपुसक वेद का उदय होने से एक साथ स्त्री है। विमान इत्यादि तैयार करने की भी विधि इसमें पाई हुई है। इस
और पुरुष इन दोनों के साथ रमण करने की इच्छा होती है, ऐसे खंड में जंगली कटहल के फलों से पादलेप तयार होता है ऐमा कुमुदेन्दु
अवसर में अशरीरी ईश्वर मन्मथ कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो प्राचार्य ने बतलाया है । प्रागे इसके विधान का प्रसंग पाने पर लिखेंगे। ऐसे देव निर्मित समवसरण में विराजमान होने पर भी भगवान ने
सकता है, ऐमा कुमुदेन्दु याचार्य ने अपने भूवलय में कहा है । इतना ही
नहीं उस समय मभी मनुष्यों में बाहबली अत्यन्त सुन्दर देखने में पाये समवसरण का स्पर्श नहीं किया । दल्कि वे सिंहासन के ऊपर चार अगुल अपर विराजमान रहते थे और आकाश में गमन किया करते थे।
थे। इस प्रकार संपूर्ण भरतखंड के मानव प्राणियों को अपने प्राधीन
करके रहने वाले भरत चक्रवर्ती ये। यदि मनुष्य सुख की अपेक्षा देसा सर्वसंघ परित्याग कर अपने तप के द्वारा संपुर्ण कमों की निर्जरा जाय तो ये दो ही सुख है एक कामदेव का सुख और दूसरा चक्रवर्ती करके केवल ज्ञान साम्राज्य को प्राप्त कर, संपूर्ण प्राणी को भिन्न- का सुख। इसके अतिरिक्त संसारी सुख अन्य किसी में भी नहीं है। भिन्न कल्याण का मार्ग न बतलाकर एक महिमामयी सच्चे पात्मक- ऐसे पतिशय कारक सुख, रूप लावण्य तथा बल इत्यादि संपूर्ण इंद्रियल्याणकारी मारमधर्म को बतानेवाले भगवान श्री वीतराग देव के द्वाग जन्य सुख को तुरण के समान जानकर उसे त्याग कर सबसे अंतिम तथा कहे हुए भूवलय को कुमुदेन्दु आचार्य ने संपूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के सर्वोत्कृष्ट अविनाशी अनाद्यनन्त मोक्ष पद को प्राप्त करने का उद्यम लिये सर्वभाषामयी भाषा ग्रंक रूप में कहा है।
1 किया, तो क्या यह बात सामान्य है? यह जिनरूप धारण करने की