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________________ द्वितीय अध्याय अनादि कालीन ज्ञान साम्राज्य के वैभव युक्त इतिहास को लिए हुये तथा नवमबन्ध में कहे जाने वाले अत्यन्त सुन्दर अर्थागम को प्रकट करने वाला यह अखिल शब्दागम हूँ । ? आकाश में अधर गमन करने वाले तथा देवों द्वारा निर्मित अत्यन्त सुन्दर समवशरण नामक सभा में विराजमान होकर उपदेश देने वाले भगवान् के मुख कमल से निकला हुआ दिव्य ध्वनि रूप यह भूवलय शास्त्र है । २ सम्पूर्ण मनुष्यों में अतिशय सम्पन्न और चक्रवर्ती के अपूर्व वैभव से युक्त ऐसे श्री भरत महाराज के अनुज तथा जिन रूप धारण करने बांसे ऐसे प्रादि मन्मथ श्री बाहुबलि जी द्वारा निरूपित यह भूवलय है। विवेचनः - मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच तथा कुन त, कुमति और कुअवधि ये तीन मिलकर आठ प्रकार के ज्ञान हैं। इनमें जो पहले के पाँच हैं वे सम्यग्ज्ञान के भेद हैं और जो शेष तीन हैं वे मिथ्या ज्ञान कहलाते हैं। इन तीनों को विभंग ज्ञान भी कहते हैं । स्यावर इत्यादि असंज्ञी जीवों को कुमति, कुश्र ुत होता है। और सेनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को विभंग ज्ञान भी हो सकता है। यह ज्ञान सासादन गुणस्थानवर्ती जीवों तक होता हूँ । सम्यग् मिथ्यात्व गुणस्थान में सदशान और असद्ज्ञान (अज्ञान) ये दोनों मिश्र ज्ञान होते हैं। मति श्रत अवधि प्रसंयत सम्यग्दृष्टि आदि को होता है । मनः पर्ययज्ञान प्रमत्त गुण स्थान को लेकर क्षीरण कषाय गुग्ण स्थान तक होता है। तेरहवें गुणस्थान में केवल ज्ञान होता है और चौदहवें गुग्ण स्थान वाला प्रयोग केवली होता है इससे ऊपर अशरीरी होकर सिद्ध हो जाता है । . पांचों ज्ञानों में जो पहले के चार ज्ञान हैं वे परोक्ष हैं और केवल ज्ञान पूर्णतया आत्माधीन होने के कारण प्रत्यक्ष है। यह ज्ञान आदि और अतिशयवान् भी हैं। केवल ज्ञान हो जाने के बाद फिर शरीर धारण नहीं करना पड़ता इसलिये इसे अशरीरी भी कह सकते हैं और पौद्गलिक पर वस्तु के संबंध से रहित है, इसलिये यह अरूपी भी कहलाता है । मन श्रति अवधि और मनः पर्यय ये चारों ज्ञानपरीक्ष हैं क्योंकि ये चारों ज्ञान इंद्रियों की अपेक्षा रखते हैं। केवल ज्ञात ग्रतीन्द्रिय है और संसार के सभी पदार्थों को एक साथ जानने वाला है । इसलिये इसको सर्वेश ज्ञान कहते हैं। अनन्त ज्ञान भी इसे कहते हैं। जिसका अन्त नहीं है वह अनन्त है । केवल ज्ञान का भी हो जाने के बाद अन्त नहीं होता है । यह ज्ञान व्यवहार नय से लोकालोक के त्रिकालवर्ती संपूर्ण विषयों को जानता है तथा निश्चयनय से अनाद्यनन्तकाल से पाये हुए अपने अात्मस्वरूप को प्रतिक्षण में जानता है अतः इस ज्ञान को शुद्धात्मज्ञान कहते हैं । - अतिशय वैभव से संयुक्त संपूर्ण जीवों को आमोद प्रमोद उत्पन्न करने वाले गंगा नदी के पवित्र प्रवाह के समान अखंडित होकर बहाने. वाले अर्थागम को मैं {दिगंबराचार्य कुमुदेन्दु मुनि) ने नवम अंक के बंधन में बांध दिया है । यह पहले कानड़ी श्लोक के अर्थ का सार है। ऐसा होने पर भी नवम बंध- वैभव इन दो शब्दों की व्याख्या विस्तार पूर्वक नहीं हो सकी। इसी अध्याय का छः से लेकर थाने वाले दलोक में संक्षेप में नवम बंध के अर्थ का विवरण करते हैं। ऐसा कहने पर भी वह पूर्ण नहीं हो सकता | : बंधनानुयोग द्वार का कथन विस्तार के साथ ही होना चाहिये । इसका विस्तार आगे लिखेंगे। वैभव शब्द का अर्थ ३४ अतिशय है. जिनका विवेचन मागे समयानुसार करेंगे । श्लोक दूसरा: ऊपर कहे ये श्लोक के अनुसार मनुष्य को केवल ज्ञान अर्थात् : निर्विकल्प समाधि प्राप्त होने के बाद उसके बल से स्वर्ग से देवेन्द्र ग्राकर उस केवली भगवान के लिये समवसरण की रचना करते हैं । देवताओं के द्वारा समवसरण की रचना होने पर भी उसकी माप
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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