________________
७३
सिरि भूवलय
सिद्ध रसमरिण के प्रताप से श्राकाश में उड़ कर लड़ती हुई सेनाओं के युद्ध को बन्द कर देने वाला काव्य है। आकाश में गमन करने वाले खेचरता के अनुभव का काव्य है ।। १५६||
मादल ( विजीरा) — जैसे एक रथ को रस्सी पकड़ कर हजारों आदमी खीचते हैं वैसे हो मादल रम से बने हुए रसमणि के प्राय से हजारों रोग नष्ट हो जाते हैं ।। १५७॥
पुष्पायुर्वेद से यह काम सिद्ध हो जाता है ।। १५८||
बाहुबलि अपने हाथ में केतकी पुष्प रखते थे। उस केतकी पुष्प के सिद्ध हुए पारद में भी नैकड़ों रोगों को नष्ट करने की शक्ति रहती है ।। १५६ ॥ आयुर्वेद के वृक्ष ग्रायुर्वेद, पत्र आयुर्वेद, पुरुष आयुर्वेद फल आयुर्वेद प्रादि अनेक भेद हैं, उनमें से यह पुप्प प्रायुर्वेद है। श्रेष्ठ पुष्प निर्मित दिव्य योग है ।। १६० ।।
अग्निपुट के चार भेद हैं:- दीपाग्नि २ ज्वालागि लाग्न ४ गाढ़ाग्नि । यहां चारों ही अग्नियों का ग्रहण है ।। १६१ ।। पादरी पुर से भी रस सिद्ध होता है ।। १६२ ।
पारा अग्नि का संयोग पाकर बढ़ जाता है, परन्तु इस क्रिया से उड़ नहीं पाता ।। १६३ ।।
सर्वात्म रूप से शुद्ध हुए पारे को हाथ में लेकर अग्नि में भी प्रवेश किया जाता है || १६४॥
मैकड़ों श्रग्निपुट देने से पारे में उत्तरोतर गुण वृद्धि होती जाती है ॥१६५॥
जो इस क्रिया को जानता है वह वेद्य है ।। १६६ ॥
तैयार किया हुआ शुद्ध निर्मल पावरम को साफ से कमरे में अमित के ऊपर रखकर थोड़ी देर के बाद गमनरूप में उड़ाकर जैसे कमरे के नीचे दीपक जलता रहता है उसी प्रकार यह पारा उड़कर छत से नीचे के दीपक के समान चमकता हुआ छत्राकार में स्थिर रहता है, उस समय वह व्यक्त रूप में आंखों से देखने में नहीं आता अर्थात् जैसे शरीर को छोड़कर प्राण निकल जाते समय श्रांखों से दीखता नहीं है, उसी प्रकार पारा भी नहीं दीखता है ।
सर्वार्थ सिद्धि सँघ बेंगलोर-दिल्ली
बहुत से विवाद करने वाले अज्ञानी लोग इसके मर्म अर्थात् भेद को न जानने वाले उसे यह समझते हैं कि यह आकाश में उड़ गया प्रर्थान् नष्ट हो गया और अपना काम बेकार हुआ ही समझते हैं। परन्तु वह पारा कहीं भी नहीं जाता है जहाँ का तहां ही है, किंतु विद्वान लोग, पारा उड़ते समय उसके नीचे को अग्नि को हटा कर तुरन्त ही उसके नीचे कागज का सहारा लगाते हुए जहां पारा ठहरता है वहां तक कागज नीचे पकड़े रहते हैं तब वह पारा उस कागज में आकर ठहर जाता है। इसी प्रकार जंगल में याकाश स्फटिक भी रहता है। सूर्योदय के समय में जैसे सूर्य क्रमशः ऊपर २ गमन करता है, और जब ठीक बारह बजे के समय ठीक बीच में आता है और स्थिर रहता है तब उसके बाद पश्चिम की तरफ उतर जाता है और सायं काल में श्रस्त होता है। उसी प्रकार यह प्रकाश स्फटिक भी नीचे उतरते-उतरते संध्या काल में जमीन में प्रवेश भीतर ही भीतर करता जाता है। रात के बारह बजे तक इसी क्रमानुसार इले २ एक स्थान पर स्थिर हो जाता है। इस को अधोगमन या पातालगमन कहते हैं ।
यदि चाकाश स्फटिक मणि पर सिद्ध रसमणि सहित पुरुष बैठ जाय तो मरिण के साथ-साथ सूर्य के साथ २ आकाश में और पृथ्वी के अन्दर गमन कर सकता है अर्थात् आकाश में ऊपर उड़ सकता है और नीचे पृथ्वी के अंदर घुसकर भ्रमण कर सकता है ।। १६७ ।।
fifeofuका नामक एक पुष्प है। इस पुष्प के रस से पारा सिद्ध किया जाता है जो ऊपर बताये हुए प्रकाश गमन और पाताल गमन दोनों में ठीक काम देता है ॥१६८॥
इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पुष्पों के रस से पारा सिद्ध किया जा सकता हैं ।। १६६ ॥
उससे भिन्न-भिन्न चमत्कारिक कार्य किये जा सकते हैं ॥ १७० ॥
उन भिन्न पुष्पों के नाम तीन अंक के वर्ग शलाकाओं से जो अक्षर
प्राप्त हों उनसे मालूम हो सकता है ।। १७१ ।।
इस प्रकार कार्य क्रम को बतलाने वाला यह भूवलय है ॥ १७२ ॥