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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली शूरवीर दिगम्बर मुनियों के द्वारा सिद्ध किया हुपा काव्य भूवलय नामक ६४ अक्षर संयोग से भी प्राता है ॥११॥ है ॥१७३।।
इससे परमात्म कमा पंक भी देख सकते हैं ॥१२॥ जैसे दिगम्बर मुनि अपने चंचल मन को बांध लेते है अर्थात स्थिर कर । इसलिए यह परम अमृतमय भूवलय है ।।१८३ । लेते हैं उसी तरह सैकड़ों हजारों पुष्पों के रस से पारा स्थिर किया जाता है।। इस तरह [१] ६४४१ ६४ [२] ६४४६३=४०३२ इस तरह भूबलय से मन और पारा योनी स्थिर किये जाने हैं ।।१७४।।
[2] ६३४६२% २४६६५४ [४] ६२४६१=१५२४१०२४ सर्वार्थसिद्धि के अग्रभाग में सिद्धगिला है उसके श्वेत छत्राकार रूप में इस क्रम के अनुसार है । इस प्रकार महारशि को बतलाना ही परमात्मा का लिखा हा अंक मार्ग जो बाता है उसो अंक को अरहतादि नौ ग्रंकों से मिश्रित अर्थात् केवली भगवान की ज्ञानरूपी कला है। यह कला इसमें गभित होने के अपने अंदर देखना, जानना हो भूवलय नामक सिद्धांत है ।।१७५||
कारण यह भूवलय ग्रन्थ परमात्म-रूप है। परमागम मार्ग से आयुर्वेद को निकाल दिया जाय तो-१३.००००००० . उत्तरोत्तर ऋद्धि प्राप्त योगी मुनि के समान पहले के तीन अकनि समस्त करोड़ पदों को मध्यम पद से गुणाकार करने से २१२५२८००२५४४०००००० अंको को अपने अंदर समावेश कर लिया है। उसी तरह यह चौथा अध्याय भी इतने अक्षर पागम मार्ग से सिद्ध है अर्थात् निकल पाते हैं। ये अंक एक सागर
यहां ७२६० अंकों को अपने अंदर गभित कर नौ अंक में सिद्धांक रूप होकर के समान हैं । तो भी यह अंकाक्षर इ पुनरुक्त रूप है । इसलिए यह सागर रूप
श्रेणी रूप में स्थित है, अर्थात् १० चक्र के अंदर यह गभित है ।।१४।। 'रन मंखूषा' नाम से प्रसिद्ध है ।।१७६।।
इतने अंकों में से और भी अंतर रूपसे निकाल दिया जाय तो १०९२६ इस भूवलय में ७१८ भाषामों के अवतार हैं, यह अवतार प्रथम संयोग। इतने और भी अंक पा जाते हैं, इतने अंकों को अपने अंदर गर्भित करता से भी निकल पाता है ऐमा कहने वाला यह सिद्ध भूवलय नामक काव्य है||१७७॥1हुमा यह भूवलय नामक ग्रन्थ है ॥१५५।। दूसरे संयोम से भी प्राता है ॥१७८।।
'इ' ७२६०+ अंतर १०९२६=१८२१६ । तीसरे संयोग से भी प्राता है ।।१७६।।
अथवा 'मा' - ई = ४६६११+१८२१६=६४८२७ ॥ चौथे संयोग से भी आता है ॥१६011
इति चौथा 'इ' अध्याय समाप्त हुआ।
चौथे अध्याय के प्रथम अक्षर से लेकर ऊपर से नीने तक पड़ते जांय तो प्राकृत गाथा निकल पाती है उस का अर्थ इस प्रकार है
इस भूदलय अन्य के मूल तन्त्र कर्ता श्री वीर भगवान हैं। उनके पश्चान् इन्द्रभूति ब्राहाण, उपतंत्र कर्ता हुए, कुमुदेन्दु प्राचार्य तक सभी प्राचार्य अनुतंत्र कर्ता हैं । प्रब धागे इस अध्याय के बोत्र में आने वाले संस्कृत गद्य का अर्थ कहते हैं :
श्री परम पवित्र गुरु को नमस्कार, श्री परमगुरु और परम्परा प्राचार्यों को नमस्कार, श्री परमात्मा को नमस्कार ।