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________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बंगलोर-दिल्ली पहुंचाते हुये अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे समय में इस संसार में पुण्य । अतप्त, भोग को नाश करने वाला काव्य है ।।१४०॥ मय दया धर्म के प्रचार के साथ फैलाते हए पाने वाले के सम्पुर्ण कष्ट नाश श्री शिवकोटि प्राचार्य शिवानन के रोग को नाश किया हुआ यह काव्य होते हैं । उस समय मोक्ष मार्ग खल जाता है । जिस समय ससार में मनुष्य के है। अन्दर मुख का मार्ग मिलता है तब जोव संसार से छूटने की इच्छा करते है। नाग पुष्प, कृष्ण पुष्प स्पर्श होने से स्वर्ण बनाने वाला सिद्धांत काव्य तब उनको ठीक समाधि से मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा होती है । जब मोक्ष । है । कभी भी असत्य न होने वाला काव्य है। प्राप्त करने की समाधि उन्हें प्राप्त हो जाती है तब गुरू पौर शिष्य का भेद नाग अर्जुनक द्वारा सिद्ध किया हुआ काव्य है, अर्थात् नाग अर्जुन के समाप्त हो जाता है ।। १३०॥ | कक्षपुट में रहने वाला कक्षपुटाँक है ।।१४१३१४२२१४३११४४११४५॥ उसी समय अपने अन्दर शुद्ध होने का समय प्राप्त होता है । तब उसी श्री गुरू सेनगण से चला आया है। प्रेम से कहा हुआ सिद्धांत है। समय जिन धर्म का अतिशय चारों ओर प्रसारित होता है जब महान द्वादश अंगों। महान सुवर्ण को प्राप्त करा देने वाला काव्य है। का द्वादश अनुभव वृद्धि प्राप्त कर लेता है उसी का नाम जिन वर्द्धमान भगवान राग और विराग दोनों को बतलाने वाला भूवलय है ॥१४६, १४७ का धर्म हैः ।।१३१॥ १४८, १४६, १५०, १५१,१५२।। समाधि के समय में मंगल प्राभृमयि यौवनावस्था को प्राप्त होता है जैसे ऊपर कहा हुमा प्रष्टमहा प्रातिहार्य वैभव का हमने यहाँ तक विवेचन कि चरखे पर, कातने से रूई का धागा बढ़ता जाता है उसी तरह। कर दिया है। यह काम्य अष्टम थी जिनचन्द्रप्रभु तीर्थंकर से सिद्ध करने के अध्यात्म वैभव भी तारुण्य को प्राप्त होता जाता है। यही शुरवीर मुनि का कारण यह अन्तिम पारम सम्पत्ति नामक अष्टम जिनसिद्ध झाध्य है ॥१५३॥ मार्ग है। अब आगे श्री कुमुदेन्दु आचार्य कहते हैं कि रसमरिण सिद्धि तथा प्रात्म इसी प्रकार नवमौक में अपने अन्दर ही तारुण्य को प्राप्त कर अपने । सिद्ध का एक हो श्लोक में साथ साथ वर्णन करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं। अंदर ही दृढ़ रहता है ।।१३२।। । प्रात्मा मृदु है और स्वर्ण मृदु है लोहा कठिन है, और कर्म भी कठिन है यौवनावस्था में यदि कोई रोग हो जाये तो जैसे वह स्वास्थ्य । जब लोहा और कर्म दोनों ही मृदु होते हैं तो यह समवशरण का वैभव बन को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जब अध्यात्म योग समाधि को प्राप्त हो जाता है जय कर्भ नर्म हो जाता है तो प्रात्मा जाकर समवशरण में विराजमान जाता है तब रोग, क्रोधादि सब को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार नवाक हो जाता है और जब लोहा नर्म होता है तो वह स्वर्ण बन जाता है ऐसे दोनों बन्ध नागर, पल्प शला का रूप होते हुए भी अपने अन्दर रहता है। ऐसा कथन । को एक साथ अनुभव करा देने वाला यह काव्य ममीकरण काव्य अथवा धन करने वाला कर्म सिद्धांत वन्ध है ।।१३३॥ सिद्ध रस दिव्य काव्य है । श्री गुरु पद का सिद्धांत है ।।१३४॥ विमान के समान शरीर को उड़ा कर आकाश में स्थिर करने वाला यह नाग, नर, अमर काव्य है ।।१३। । यह काव्य है। उसी समय कहा हुअा योग काव्य है ॥१३६।। यह पनस पुष्प का काव्य है। यह पात्मध्यान काव्य है ।।१३७॥ यह विश्वम्भर काव्य है। नाम पुष्प, चम्पा पुष्प, वंद्य काव्य है ।।१३८।। यह भगवान जिनेश्वर रूप के समान भद्र काष्य है। योग, भोग को देने वाला सिद्ध काव्य है ॥१३॥ भव्य जीवों को उपदेश देकर जिन रूप प्राप्त कराने वाला काव्य है।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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