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अध्याय १५
१६ और २० अध्याय इसमें भवनवासी'देव, और उनके वैभव का कथन किया गया है। इसमें
इसमें सीधा भगवद्गीता के अर्थ को दूसरी श्रेणी में अंक विज्ञान, अणुसम्भव और असम्भव जंचनेवाले तत्वों का विशद विवेचन किया गया है। विज्ञान ग्रादि के प्रदर्भत विषयका ऊपर से नीचे तक अंक विद्यायों के साथ वर्णन अध्याय १६
किया गया है। इस तरह इस खंड में २० अध्याय हैं। उनमें इस मुद्रित भाग दोनों श्रेणियों में भगवद् गीता की प्रस्तावना का वर्णन तथा उसो के । में १४ अध्याय तक दिया गया है। शेष ६ अध्याय बाकी हैं। उनके यहां न अन्तर्गत तत्वार्थसूत्र का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है । और भगवद् ! दिये जाने का यह कारण है कि इसके मूल अनुवादक पंडित एलप्पा शास्त्री का गीता के प्रारम्भ करने के पूर्व मंगल कलश की पूजा करके गोता का व्याख्यान | अस्मात् आयु का अन्त हो जाने के कारण इस कार्य में कुछ रुकावट-सो प्रारम्भ किया है। तथा कृष्ण और अर्जुन के रूप को अपने में कल्पना कर आ गई है। किन्तु फिर भी हमारे चातुर्मास के अन्त में इसके भार को सम्हालने पूर्व गीता और तत्वार्थ सूत्र का विवेचन किया है। आगे अमोघवर्ष के लिए। वाले अन्य सहायक के अभाव में उसे पूरा करना सम्भव नहीं हो सका। कन्नड़ गीता की भूमिका का उल्लेख किया गया है।
तो भी हमने शेष को ११ अध्याय से लेकर १४ अध्याय तक रात दिन में इस अध्याय १७
का अनुवाद कर पूरा करने का प्रयल किया है । पामे अवसर मिलने पर, पीर इसमें भगवद् गोता की परम्परा ब्राह्मण वर्णोत्पत्ति गोम्मटदेव (बाहुवली)
एक स्थान पर ठहरने आदि को सुविधा उपलब्ध होने पर उसे पूरा करने का को उपनयन विधि, वनवासि-देश की. दण्डक राजा के विषय का अत्यन्त सुन्दर
प्रयत्न किया जायगा। विद्वानों को चाहिए कि वे इस ग्रन्थ का अध्ययन करके रूप से कथन करके राजा समुद्र विजय, तथा बलवन्त उपयत तारने
लाभ नलाग । क्योंकि ग्रन्थ का प्रतिपाद्य अंक विषय गम्भीर होने के कारण की विधि का काद्वारा उल्लेख किया गया है।
। सर्वसाधारण का उसमें सरलता से प्रवेश होना कठिन है। बलभद्र, नारायण इत्यादि की उपनयन विधि के साथ गीता तत्वोपदेश
चक्रवन्ध को पढ़ने का क्रम का समुल्लेख किया गया है। इस भगवद् गीता को सर्वभाषामयी भाषा गोता के इस 'नो' अध्याय की एक बिन्दो को तोड़कर, उसको घुमाने भवलय रूप में, पांच भाषा रूप में प्राकृत, संस्कृत, अर्धमागधी , प्रादि में से चक्र तथा पद्य प्रारम्भ हो जाता है। इस पथ का कहीं भी अंक में पता नहीं कृष्ण रूप कुमुदेन्दु ग्राचार्य ने निरूपण किया है।
1 चलता, क्योंकि भूवलय ग्रन्थ अक्षर में नहीं है। प्रक्षर में होता तो कहीं न अध्याय १८
कहीं पढ़ा जाता, अत: पढ़ने के लिए इसमें एक भी अक्षर नहीं है । बाएं से इसमें मूल थेणी में भगद् गीता को शेष परम्परा का उल्लेख करते दायें तक पराबर चले जायें तो उन अंकों को गणना २७ होती है । इसी तरह हए, पहले की थेगो में जयाग्थान के अन्तर्गत भगवद गीता के श्लोकों का! ऊपर से नीचे की ओर पढ़ते जावें तो भी २७ अंक ही प्रावगे, इस तरह चारों कनििटक भाषा में निरूपण किया गया है। और भगवद् गीता के अंक चक्र का ! ओर से पढ़ने पर २७ अंक हो लब्ध होते हैं । २७४२७-७२६ हो जाते हैं। कथन दिया हुआ है । तथा अंक चक्र को समझाकर द्वितीय अध्याय में उल्लि-: इसो चौकोर चक्र के कोष्ठक में ६४ अक्षर के गुणाकार से गुरिणत कर प्राप्त खित अनुलोम सम-विषम आदि की संख्या को शुद्ध करके गीता का आगे का हुआ लब्धांक ६४ ही लिखा गया है। उन २७ अंकों में से दोनों ओर के १३विवेचन दिया हुपा है। इस श्रेणी में कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहा गया १३ अंक छोड़कर ऊपर के एक का रूप '' है । 'प्र' के ऊपर से नीचे उत्तर 'अणुविज्ञान' का भी वर्णन करता है।
करके उसके अन्तिम अंक ६ को छोड़कर बगल के ५८ अंक पर पाजाय इस