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ने ४ बातें मुख्य रूप से कही है
अन्याय १० दोषगळ् हदिनेन्टु मशियार्चाग । ईशरोळ भेव तोरुवा ।।
इसमें कर्नाटक जैन जनता को अध्ययन कराकर, तथा क ट प इनको राशिरत्नत्रय दापोय जनरिगे । दोष वळिवबुद्धि बहुदु ।।
नवमांक पद्धति को तथा 'य' इस अंक की अष्टक पद्धति को समझाया है इस वर्ग
पद्धति के अनुसार २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, इन भागों में समान पनुलोम-प्रति सहावास संसार वागिपोकाल । महियकळ्तलेये तोरबटु॥ ।
लोमों का परस्पर गुणा करने से सम्पूर्ण भाषाओं में यही काव्य ग्रन्य महरणारण बरणीय दोष बळियलु । बहु सुखविहमोक्ष वहुटु ॥ पा जाता है। यहां को तोड़कर दो भाग करके, इस गरिगत को रोति से विषहर बागलु चैतन्य बप्पन्ते । रससिद्धि अमृतवशक्ति ।। समस्त भाषानों को अंकित कर उनको रीति को विशदरीति से समझाया गया यशवागे एकांत हरकटु केटोडे । वशवप्पनन्तु शुद्धात्म ।। है। इस तरह पुरानी और और नयो कनड़ो मिलाकर मिथित रूप में काव्य रतुनत्रयदे प्रादियवंत । द्वितियवु द्वं तदेम्बंक ॥
१ को रचना की गई है।
अध्याय ११ तृतीयदोळ नेकातळवेने दैताद्वैतव । हितदिसाधिसिद्ध जैनांक । हिरियत्व बिवुमूरु । सरमालेय । अरहंत हारदरत्नम् ॥
इस भाग में ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री ब्राह्मी को सिखाये गये अक्षर
अंकों को लिख लिया गया है। इस पद्धति से कोड़ा-काही सागर को मापने को सरफरिणपरते मरर मूर प्रोंबत्त । परिपूर्णमूरारुमूरु ।।
'मेटगूट शलाका रोति को समझाया गया है। . ॥७७-८१॥
प्रध्याय १२ अध्याय ७
इसमें २४ तीर्थकरों, के उन वृक्षों का जिनके नीचे बैठकर उन्होंने इसमें कवि रस सिद्ध के लिए आवश्यक २४ पुष्पों की जाति तथा
तपा। अरहंत पद प्राप्त किया है। उन अशोक वृक्षों का नाम तथा उनकी प्राचीनता अष्ट महा प्राविहार्यों में एक सिंह का नाम कहकर चार सिंहों के मुखों की काजल्लेख किया गया है। महिमा का वर्णन किया गया है।
अध्याय १३ अध्याय
इसमें पुरुषोत्तम महान् तीर्थकरों की जीवनचर्या, तपश्चरण, विद्या इस भाग में समस्त सीर्थंकरों के वाहनों, सिंहासनों का प्राकार रूप । और उनके बैदुष्य गुण का महत्व ख्यापित किया है। साथ ही भगवान महावीर और उनके स्वभाव के साथ राशि की तुलना करते हुए उनकी पायु, नाम आदि के बाद होनेवाली प्राचार्य परम्परा का, तथा घरसेनाचार्य का कथन करके का प्रश्नोत्तर एवं शंका समाधान के साथ गणित शास्त्र का व्याख्यान किया है। सेनगण परम्परा का वर्णन किया गया है। अध्याय
अध्याय १४ इसमें रस सिद्धि के लिए प्रावश्यक कुछ पुष्पों का, और सिद्ध पुरुषों । इस अध्याय में पुष्पायुर्वेद को विधि बतलाकर तत्पश्चात् चरकादिद्वारा को दिव्य वाणी को, कर्नाटक राजा अमोघ वर्ष को सुनाया गया है, और उसमें । अज्ञात 'न समझी जाने वालो' 'रसविद्या' को और जिनदत्त, देवेन्द्र यति अपने वंश का परिचय देते हुए प्राचार्य भूत बली के भूवलय की ख्याति का । अमोघवर्ष, समन्तभद्राचार्य, मादि के द्वारा समर्थित एवं पल्लवित पुष्पायुर्वेद वर्णन किया गया है।
' का निरूपण किया गया है।