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________________ अंक का अर्थ 'प' है । वहाँ से आगे बढ़ने पर दूसरी पंक्ति के ऊपर के कोने में ब्रह्माण्ड मालूम होता है इसी में तीन लोक गर्भित हैं, उसी तरह नवमांक के ३८ माता है । इस अङ्क का अर्थ 'ट' होता है । पुनः ५८ के बाद एक अङ्क अन्दर सम्पूर्ण जगत् गभित है । इसमें विश्व को सभी भाषाएँ अन्तनिहित होने प्राता है । ६० का अर्थ 'ह' है, एक का अर्थ'प्र' है। इसी तरह से इसी क्रम रोति से इस ग्रन्य का नाम 'भूवलय' रखा गया है, जो उसके यथार्थ नाम को के अनुसार अन्त तक (६०) चले जावें, और ६० से लौटकर बाड़ी साइन की सूचित करता है। मध्यम प्रथम पंक्ति के २ पर पाजाय । दो का अर्थ 'या' हो गया। 'ह' में पा मिलाने से हा हो गया । इस तरह ऊपर चढ़ते हुए जाने से एक अंक पहले अंक अक्षर में जो कानड़ी भाषा का इलोक अष्ट महाप्रातिहार्य पर पहुंचते हैं, क्योंकि वह एक अंक माड़ा हो जाता है। पुन: वहाँ से एक रूप होता है । और अ' से नीचे को और पढ़ा जाय तो 'पट्टवियकम्म वियला' कोठा नीचे उतरकर फिर ऊपर '४७' पर जाय, वहाँ से फिर पाड़ा जाय और प्राकृत भाषा की गाथा निकलती है । उस कानड़ी श्लोक के मध्य में 'यो' प्राता निश्चित कोठे पर पहुंचकर फिर ऊपर लिखे क्रम से उसी प्रकार प्रवृत्ति करता है। उसस नाच तक पकृत जाय ता संस्कृत काव्य निकलता हा इसा तरह स जाय तो घंटे के अन्दर सभी अंकों को पढ़ सकता है। इन ६४ अक्षरों में सभी १५ अध्याय तक पढ़ते जायें तो उसके नीचे-नीचे भगवद्गीता निकलती है । इस भाषाओं का समावेश है । पर वह रूढ़ी रूप न होने से लोगों को उसके पढ़ने तरह से इसअथाह अंक समुद्र में कोई पता नहीं चलता, परन्तु चतुर मनुष्य में कठिनाई होती थो किन्त दो वा के कठिन परिश्रम के बाद उसे पीने डुबकी लगाकर उसमें से सुन्दर सुन्दर मोती निकाल कर लाते हैं। इसी तरह पर सभी के लिए मार्ग सुगम हो गया है। और सभी जन प्रयत्न करने पर उस प्रक समुद्र का यथेष्ट रीत्या अवगाहन करने पर विविध भाषामों से प्रोतउसे प्रासानी से पड़ सकते हैं तथा सभो भाषामों का परिज्ञाम कर सकते हैं। प्रोत अनेक ग्रन्थों का सहज ही पता चल जाता है । जिस तरह समुद्र में डबकी जिस तरह से छोटे बच्चों को यदि यह भाषा सिखलाई जाय तो वे कम से कम । लगानेबाने चतुर मनुष्य गहराई में डुबको लगाकर असली और नकली मोती छः महीने में पढ़ सकते हैं अर्थात् १-२-३-४-५-६-७-८-६-०, इनमें से बिन्दी को ! निकाल लाते हैं और फिर उनमें से असली मोती छाटकर रख लेते हैं। उसी तोड़कर नद अंक की उत्पत्ति हुई है। इस तरह तत्व दृष्टि से विचार किया जाय। प्रकार इस भगवद्गीता के अन्तर्गत गहराई से अध्ययन करते हुए 'ओम् इत्ये तो भगवान महावीर की समस्त वाणो का (उपदेशों का) सार सातसी अठहार। काक्षरं ब्रह्म' अट्टवियकम्म वियला, सरस्वती स्तोत्र-चन्द्रार्ककोटि और तत्त्वार्य भाषाओं को उपलब्धि होती है। क्योंकि यह नव ग्रंक में संसार की समस्त सूत्र इत्यादि भाषाएँ निकलती है । इसके मागे और भी अवगाहन कर अनेक भाषाएं गभित है। और यह नव का अंक नव देवता का बाची है । पीर इष्ट भाषाप्रा का पता चलन पर नाचत किया जावगा । पाकि इस समय तक १४ मंगल रूप है । अध्यायों का हो अनुवाद हो सका है। शेष ग्रन्थ का अनुवाद बादको प्रस्तुत किया जिस तरह श्रीकृष्ण ने मुंह खोला तो यशोदा ने विचार किया कि यह ! जावेगा। पाठक गरग उससे सब समझने का यत्न करें।
SR No.090109
Book TitleSiri Bhuvalay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvalay Prakashan Samiti Delhi
PublisherBhuvalay Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Principle
File Size10 MB
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