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नौवां अध्याय
'ऊ' तो नवम् अक है। इसमें अतिशय ज्ञान भरा होने से ज्ञान साम्राज्य - काव्य भी कहते हैं । अनेक वैभवों को मङ्गलरूप से प्राप्त करने वाला पृथ्वी रूप पर्याय धारण करनेवाला और प्रात्मा का स्वरूप दिखाने वाले इस भूवलय के सिद्धान्त काव्य का आदि में नमस्कार करता हूं ॥१॥ 'भूवलय' के दो अर्थ हैं एक समस्त पृथ्वी और दूसरा आत्मा । समस्त पृथ्वी को भूलोक कहते हैं। लोक के बाहर अलोक को भी पृथ्वी ही कहते हैं । यह लोक असनाली के अन्दर और बाहर रहता है। उन सबको जाननेवाला ज्ञान ही है। आत्मा ज्ञान धनस्वरूप है। ज्ञान का रस ही मंगल प्राभृत रूपी इस भूवलय का प्रथम खण्ड है || २ ||
सूर्य तो बाहर प्रकाश करता है और मन के अन्दर जो प्रकाश होता है वह ज्ञान सूर्य है । उम ज्ञान सूर्य में जिनेन्द्र देव की स्थापना करनी चाहिए। जैसे जिनेन्द्र देव सभवारण मे सिंहासन के ऊपर रहने वाले १००८ दल वाले कमल के ऊपर चार अंगुल अधर में स्पर्श नहीं करते हुए कायोत्सर्ग में खड़ा हुआ अथवा मल्यंकासन में बैठा हुआ ऐसे जिनेन्द्र देव की मन में स्थापना करनी चाहिए । जब जिनेन्द्र देव जी की स्थापना मन में होती है उस समय उनका पवित्र ज्ञान भी हमारे अज्ञान तिमिर को नष्ट करता रहता है। उस जिनेन्द्र भगवान में ३४ अतिशय रहते हैं । भ्रष्टमहाप्रातिहार्य के स्वरूप को पहले कह चुके हैं । श्रव ३४ अतिषय का वर्णन करने वाला यह "क" अध्याय है । ३-४|
कमोंदय से दुर्गन्धरूपी पसीना शरीर से निकलता है। घातिया कर्मक्षय में यह पसीना माना भगवान का बन्द गया । इसलिए भगवान का परमोदारिक दिव्य शरीर निर्मल है। उस परमोदारिक शरीर में बहने वाला रक्त हमारे शरीर की भांति लाल नहीं है बल्कि उस रक्त का रङ्ग सफेद है। यह शुक्ल ध्यान की अन्तिम दिशा का द्योतक है। हड्डी की रचना में अनेक नमूने हैं। सबसे पहले की उत्तम हड्डी की रचना को वच्चवृषभ नाराचसंहनन कहते हैं । जोड़, आदि वज्र से बने रहने के कारण इसको वस्त्रवृषभनाराच संहनन
कहते हैं। यह वजवृपभ नाराच संहनन उसो भव में मोक्ष को जाने वाले धारणी का होता है अन्य को नहीं किसी तो तलवार से आघात करने पर भी यह वचवृषभ नाराच संहनन से बना शरीर नष्ट नहीं होता है । दृष्टांत के लिए भगवान बाहुबली देव का शरीर लीजिए। जब भरत चक्रवर्ती ने अद्भुत शक्ति मान चक्र रत्न को रणभूमि में भगवान बाहुबलि पर छोड़ा तो वह चक्र कुछ नहीं कर सका, क्योंकि बाहुबलि जो का शरीर वज्रवृषभ नाराच संहनन से बनाया हुआ था। यहां अतिशय जन्म से ही था ॥ ५ ॥
संस्थान अर्थात् शरीर को रचना को कहते हैं। संस्थान भी विभिन्न हैं। इनमें प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान है। शिल्प शास्त्रानुसार समस्त लक्षण से परिपूर्ण अङ्ग रचना को समचतुरस्र संस्थान कहते हैं, अर्थात् प्रत्येक अङ्ग को लम्बाई चौड़ाई की समानता होने को समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। इसके हटान्त' के लिएदक्षिण में श्रवण बेलगोल में रहने वाली बाहुबलि स्वामी की विशालकाय मूर्ति ही है। ऐसा शिल्पशास्त्र से बना हुआ होने से भगवान का रूप वर्णमातीत है और अतिशय कांति वाला है। उनकी नाक चम्पे के पुष्प के समान है। श्रीमद् स्वस्तिका नन्द्यावर्ता आदि १००८ शुभ चिन्ह भगवान के शरीर में दीख पड़ते हैं। और भगवान में अनन्त बल तथा बीर्य रहता है। अनन्त बल अर्थात् चौदह रज्जु परिमित जगत को आगे पीछे हिलाने को शक्ति रहती है। लेकिन हिलाते नहीं । हिलाते रहें तो भगवान बच्चे के खेल खेलते हैं ऐसा कहने लगें १६ से ११ तक।
भगवान हमारी तरह मुँह खोलकर जीभ हिलाते हुए दांतों का सहारा लिए वचन प्रयोग नहीं करते हैं। अपने सर्वांग से ही ये भाषण करते हैं। वह वचन बहुत सुन्दर होते हैं। जितनी बात करनी चाहिए उतनी ही करते हैं अधिक नहीं। वह भाषा मधुर होता है। यह दस मेद - ( १ ) पसीना नहीं रहना [२] रक्त सफेद होना (३) वज्रवृषभ नाराच संहनन [४] समचतुरस्र संस्थान, [५] अनुपम रूप [६] चम्पा पुष्प के समान नासिका [७] १००८ शुभ चिन्ह, (८) अनन्त बल [C] अनन्त वीर्यं [१०] मधुर भाषण भगवान में जन्म सिद्ध हैं तथा स्वाभाविक हैं। इसको जननातिशय कहते हैं ।