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तेरहवां अध्याय
भारतवर्ष अढाई द्वीप में है। इस प्रदेश में जितने भी साधु गण हैं। वे उस कठोर तपस्या को सरलता से सिद्ध कर लेते हैं। +६=१८००० वे सभी मोक्षमार्ग के माधन में संलग्न रहते हैं । भारत के मध्य प्रदेश में 'लाड" [अठारह हजार] प्रकार के शील को धारण करके तथा उसके अाभ्यन्तर भेद नामक एक देश है । उस देश में साधु परमेष्ठी मागमानुसार अतिशय तपस्या को भी जानकर परिशुद्ध रूप से निरतिचार पूर्वक पालन करनेवाले अपने करके ऋद्धि के द्वारा अपने प्रात्मिक बल की वृद्धि करते रहते हैं। उन समस्त शिष्यों को भी इसी प्रकार शील को रक्षा करने के लिए सदा उपदेश देते साधुनों का कथन इस तेरहवें अध्याय में करेंगे, ऐसा श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य प्रतिज्ञा करते है ।
अठारह हजार शीलों के अन्तर्गत चौरासी लाख भेद हो जाते हैं । प्रकाशमान पात्मज्योति के प्रभाव से आदिकाल अर्थात् ऋषभनाथ भगवान् । उनको उत्तरगुण कहते हैं। इनमें एक गुण भी कम न हो, इस प्रकार पालन से अथवा अनादिकाल अर्थात् ऋषभनाथ भगवान से भी बहुत पहले से इन ! करनेवाले को साधुपरमेष्ठी कहते हैं १६॥ समस्त साधुओं ने (तीन कम नौ करोड़ मुनियों ने) इस शरीर रूपी कारागृह ! ये साधु समस्त दर्शन शास्त्रों के प्रकाण्ड के होते हैं 1७1 से पारम-ज्योति को प्रगट करके मोक्ष पद को प्राप्त किया है। अतः उन सभी । ये साधु सर्प के भव भवान्तरों को अपनो शानयाक्ति के द्वारा जान लेते को हमारा नमस्कार है। क्योंकि इस प्रकार नमस्कार करने पर से गणित है (वर्ष-बाब्द से समस्त तिर्यंच प्राणियों को ग्रहण किया गया है) 101 में न पानेवाले अनन्तज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है ।
उनके मन में जो अनायास ही शब्द उत्पन्न होते हैं वही शब्द शास्त्रों विवेचन:-मूल भूवलय के उपयुक्त दो कानड़ो श्लोकों में से साधुगलि. का मूल हो जाता है ।। हरेरडूवरेतीपदि इत्यादि रूप और एक कानड़ी पद्य निकलता है। उन ४८
ग्राम के वृक्ष में जो फूल (बौर ) द्वारा रासायनिक क्रिया से गगनगाकानड़ी पद्यों के मिल जाने से एक यूसरा और अध्याय बन जाता है। वह मिनी विद्या सिद्ध होती है उस विद्या के ये साजन पूर्णरूप से जाता है। उस अध्याय अन्य स्थान में दिया गया है। उस अध्याय में अनेक भापायें निकलती ।
। विद्या का नाम अनल्पकल्प है ।१०।। हैं । किन्तु उन भाषामों को यहां नहीं दिया है। यही क्रम अगले प्रध्यायों में
में साधु नो () अंकापी भूबलय विद्या के पूर्ण-ज्ञाता हैं, अतः इनकी भी चालू रहेगा।
अगाध महिमा का वर्णन किस प्रकार किया जाय।१११ वे साघु जन अपने आत्मस्वरूप में रत रहकर परिशुद्धात्म-स्वरूप
इन साधुओं का प्रत्येक शब्द सिद्धान्त से परिपूर्ण रहता है। अर्थात् को साधन करते हुए सर्व साधु अर्थात् पांचव परमेष्ठी होकर परम अतिशय रूप
इनके प्रत्येक वचन सिद्धान्त के कथानक ही होते हैं ।१२। से परमात्मा के सदृश होने को सद्भावना सदा करते रहते हैं ।।
। वे साधु पंचमहावतों को निर्दोष रूप से पालन करते हुए क्रमानुगत
इनके एक ही शब्द के केबल श्रवण मात्र से मिथ्यात्वकर्मों का नाश प्राग्मिकोन्नति मार्ग में सदा अग्रसर रहते हैं। मन, बचन और काय गुप्तियों, हो जाता है, तो उनका पूर्ण उपदेश सूनने से क्या होगा के घारक होते हुए उपवास अर्थात् मात्मा के समीप में वास करते रहते हैं। उनके दर्शन मात्र करने से कर्मरूपी समस्त बनों का नाश हो जाता साघुओं के गुणों के कमन करनेवाली विधि को उपक्रम काब्य कहते हैं। यही है ।१४। श्री भूवलय का उपक्रमाधिकार है ।४।
भेद और प्रभेदरूपो दो प्रकार के नय होते है। उन दोनों नयों में में उनके तपश्चरण को देखकर सब पाश्चर्यचकित हो जाते हैं, किन्तु | साधुपरमेष्ठी निष्णात है।१५।