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सिरि भूरा
सर्वार्थ सिद्धि संच बैंगलोर पिल्ली ये साधु नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, पाब्द, समभिरूट पोर एवंभूत ।। मतः वे पात्मिक बलशाली थे । इन मुनियों को जंगल में पानेवाले राजाइन सात नयों में परम प्रवीण हैं।१६।
घिराज बड़ी भक्तिभाव से पाहार देते थे। अतः ये आत्मिक बल के साथ ये साघु ज्योतिष विद्या के अष्टांगनिमित्तहान में प्रत्यन्त कुशल होते शारीरिकादि से भी बलशाली ये 1३०
अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग ज्ञान से विभूषित होते हुये ये महात्मा प्रात्मये साधु वादी-प्रतिवादी को विद्या को स्तम्भन करने में बहुत चतुर है । ध्यान से कदापि नहीं विचलित होते थे। ऐसे ज्ञानी साधु परमेष्ठी उस जंगल में अथवा भूत प्रेतादि ग्रहमणों को भी स्तम्भन करने वाले हैं 1१८॥
सिंहतीर्थ नामक पवित्र स्थान में तपस्या करते थे। इन पंचपरमेष्ठियों "की इन साघुषों ने मोहन, बशीकरण आदि विद्यामों में अत्यन्त प्रवीणता! माज्ञा पाते ही जंगल में रहने वाले सभी साधु घनघोर तप करने के लिये तयार प्राप्त की है अथवा बन्ध करनेवाले को मोहन करके अपनी ओर आकर्षित हो जाते थे और उस तप को करके प्रखर ज्ञान को प्राप्त कर लेते थे। इस करके उन्हें अपना शिष्य बनाने में भी ये निपुण हैं ।१६।।
प्रकार समस्त तपस्वी उस सिंहतोयं तपोभूमि में अत्यन्त धन घोर तप करके ग्रहादि को आकर्षण करने में भी ये अत्यन्त निपुण हैं ।२०।
। अपने प्रात्मबल को बढ़ाने बाले थे ।३१। और ग्रहादि का उच्चाटन करने में भी ये अत्यन्त समर्थ हैं ।२१॥
ऐसे उत्कृष्ट ज्ञानादि शक्तियों के धारी होने पर भी वे साघु ज्ञान मद और समस्त मन्त्रों को साध्य करने में ये अत्यन्त निपुण हैं ।२२।
1से नर्वथा रहित रहते थे। ऐसे परमेष्ठियों के कर-पात्र में दिए हुए पाहार को समस्त अर्थ को सिद्ध करनेवाले इस साधु परमेष्ठी को सिद्ध भगवान
देखकर वे इस प्रकार विचार करके ग्रहण करते थे कि यह सात्विक माहार भी कहते हैं ।२३।
निर्मल ज्ञान की उन्नति करने वाला नहीं है, यह केवल जड़ शरीर को ही अवलय में जैसा चक्रबन्ध है उसो रीति से आत्मिकगुणों के चक्ररूपी पुष्टि करने वाला है और पात्मा के द्वारा उत्पन्न हुआ शानामृत ब्राह्मण भन्न बन्ध में पवन के समान घूमने वाला है ।२४॥
आत्मा को पुष्टि करने वाला है। जड़ शरीर और पात्मा को भिन्न रूप ये साधु दान देने में अत्यन्त प्राज्ञ हैं और संसार में सभी लोगों के द्वारा
समझकर पुद्गल अन्न पुद्गल को पात्म स्वरूप से उत्पन्न अन्न प्रात्मा को
समझकर पुद्गल अन्न पुद्गल 'दान दिलाने में बड़े बिलक्षण हैं 1२५॥
अर्पण करने वाले महापुरुषों को आहार देने का शुभ-समागम अत्यन्त पुण्योदय
1 से ही प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं ।३। जंगलों में समस्त जीबों के बीच चक्रवर्ती सिंह है और उसमें रहने वाले
जिस प्रकार गजराज बड़े गौरव के साथ दिए हुए भोजन को गोरता सपस्वी जन उस सिंह से भी पूज्य है। किन्तु सिंह और उन समस्त साधुनों से।
पूर्वक ग्रहण करता है उसी प्रकार ये साधु गंभीर मुद्रा से खड़े होकर प्रात्मोन्नति भी सेव्य ये पंचपरमेष्ठी हैं ।२६॥
1 के लिए पाहार ग्रहण करते हैं, आहार के लोभसे नहीं । इसीलिए रात्रि में पान ये साध गण सर्वदा तपोवन रूपी साम्राज्य का पालन करने वाले हैं। करने पर उनकी प्राध्यात्मिकता अदभुत रूप से चमकने लगती है।३३। अर्थात् स्थावर आदि समस्त जीवों की रक्षा करने वाले हैं।२१-२८
I नी पागम निक्षेप दृष्टि से ये साधु परमेष्ठी ऋषभ के समान भद्रतापूर्वक हजारा वषा से हजारा मुान इस भूवलय अन्य का उपदण दत हय इस मन से द्वादशाङ्ग श्रुत का चितन करने लगते हैं। तब अक्षर ज्ञान उत्लन्न हो जाता लिखते आये हैं ।
है। प्रक्षर के प्रथं का वर्णन पहले किया जा चुका है। प्रतः वही अक्षर ज्ञान उसो जंगल में ये साप जन मनुष्य तिर्यञ्च और देवों को उपदेश देते रात्रि के समय उन साधनों के हृदय-कमल में अनक्षर रूप बन जाता है ।३४१ हुये अपने प्रात्मावलोकन में लीन रहते थे और ज्ञान दर्शनादि अनान गुणों। इस तपस्या में निश्चल भाव से ये माधु परमेष्ठो रत रहने के कारण का उपयोग रूपी पाहार पात्मा को देते हुये जंगलों में विचरण किया करते ' तपो राज्य के स्वामी कहलाते हैं ।२५॥