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सिरिमूवलय
अपने श्रात्मा के समीप में लाने वाला यह दिव्य भुवलय काव्य है ।। १५६ ॥ जनता का पालन, सच्चरित्र द्वारा कराने वाला यह काव्य है || १५७।। इस काव्य को पढ़ने से सर्व प्रकार की उन्नति होती रहती है इसलिये सर्वोदय काव्य है ।।१५८॥
काल को बताने वाली जल घटिका के समान यह दिव्य एक है।। १५६ ॥ केलों के पत्ते के उद्वम काल में जैसी कोमलता और सुन्दरता रहती है वैसे ही यह मृदु सुन्दर काव्य है ॥ १६० ॥
अत्यंत सूक्ष्म अक्षर वाला यह सरसांक काव्य है ॥ १६१ ॥
तोता और कोयल के शब्द के सामान सुनने में प्रिय लगने वाला यह काव्य है ।। १६२ ।।
कुमारी बालिका की बोली जैसे लिक होती है वैसे ही यह काव्य सुनने में है ॥ १६३॥
सुनने में प्रिय लगती है और मांगप्रिय लगता है और मंगल को देता
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेंगलोर- दिल्ली
की वाणी भी मूल में इसी भाषा में प्रचलित हुई थी इसलिए ग्रन्थ को कुमुदेन्दु आचार्य ने इसी भाषा में लिखा है ।
प्रथम कामदेव गोम्मदेश्वर का यह काव्य है ।। १६४ ।।
श्रदंत धावनदि श्रठाईस मूल गुरणों को धारण करने वाले दिगम्बर मुनियों का यह काव्य है ।। १६५ ||
सम्पूर्ण जगत के अज्ञान अंधकार का नाश करने वाला मह काव्य है । ॥१६६॥
इस काव्य का अध्ययन करने वाला मनुष्य व्रती बन जाता है ।। १६७।। व्रत को उज्ज्वल करने वाला यह काव्य है ।। १६८ ।।
श्रानन्द को अत्यंत बढ़ाने वाला यह आध्यत्मा काव्य है ।। १६६ ॥
दिगम्बर मुनि विरचित यह काव्य है ॥ १७० ॥
जिसको कर्णाटक कहा जाता है उस भाषा का नाम वास्तव में कर्नाटक है
यह बात करर्णाटक राज्य के दो करोड़ प्रादमियों में आज भी प्रचलित है। भगवान
इस भूतल पर तीन सौ त्रेसठ मत देखने में आ रहे हैं जो कि एक दूसरे से परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं और सदा ही लड़ते रहते हैं उन सब को एकत्रित करके मंत्रीपूर्वक रखने वाला स्याद्वाद है एवं उस स्याद्वाद के द्वारा श्री प्राचार्य ने इस भूवलय ग्रन्थ में बड़ी खूबी के साथ शांतिपूर्वक उन सब को अपनाया है ।। १७१।।
इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से जिन भाषाओं का लाभ हमको नहीं हैं उन सब भाषाओं का ज्ञान भी सरलता पूर्वक हो जाता है। एवं विनय पूर्वक इसका अनुमान करने से अध्यात्मसिद्धि होकर वह आदमी अचल बन जाता है । इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले इस तीसरे अध्याय में, ७२६० अङ्क हैं जिन में श्रा जाते हैं ऐसे दश चक्र हैं। उन्हीं दशचक्रों को दूसरी रीति से पढ़ने पर १०५६६ अंक और निकलते हैं । इन दोनों को मिलाने पर १४४ कम १८००० काक्षर हो जाते हैं ॥ १७२ ॥
सम्पूर्ण संसार के दुःख को नष्ट करने वाला सोऽहं यह अपूर्व मन्त्र हैं इसका अर्थ होता है कि युग के प्रादि में होने वाले भगवान ऋषभ देव की सिद्धात्मा का जैसा स्वरूप है वैसा ही मेरा भी स्वरूप है ।
प्रश्नः - सिद्ध भगवान तो अनादि से हैं फिर श्री ऋषभदेव को हो क्यों लिया? इसका उत्तर यह है कि - श्री ऋषभ देव भगवान ने ही प्रारम्भ में अपनी पुत्री सुन्दरी को अंक भाषा में यह भूवलय ग्रन्थ पढ़ाया था। जो कि नौ ६ अंकों में सम्पादित किया हुआ है ॥ १७४॥
इति तीसरा आ ३ प्लुत अध्याय समाप्त हुआ।