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सिरि भूषलय . . ..
सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली वर्णन करें। सर्वार्थ सारमय पदार्थ का साध्य कर देनेवाले अदि अनेक प्रकार (श्लोक नं० ३१ से ५० तक में सेनगण गुरु-परम्परा का वर्णन पाया के वैभव को प्राप्त कर देनेवाले, तथा धावकों को यह सारी बस्तु अत्यन्त है। इस विषय का प्रतिपादन व विवेचन पर किया जा चुका है)। उपयोगी तथा प्रदान कर देने वाले हैं ।२७
अपने को जब उत्तम पद की प्राप्ति होती है । उस समय मानव के इस प्रकार इन दोनों इलोकों का अर्थ कहा गया। इन्हीं दोनों श्लोकों। हृदय रूपी चक्र में चमकने वाले उज्ज्वल ज्योति को कोमल करके त्रिशुप्ति को पहचानने के लिए अर्थ विराम डालकर कोष्ठक में बन्द किया है । श्लोक 1 से अपने अन्दर ही अपने प्रात्मा (हृदय चक्र) को बांधना उस समय प्रात्मा अपने में जहां प्रग्रेजो का प्रक डाला है वहां एक श्लोक का अर्थ निकलता है। वहाँ अन्तरंग के समस्त गुणों में घूमता रहता है। उस समय अनेक तत्व अपने से आगे दूसरा अर्थ निकलता है। इसी प्रकार प्रत्येक दलोक का अर्थ निकालना । भीतर ही दीखते हैं। उस समय वह आत्मा एक तत्व को देखकर आनन्दित होते चाहिए और आगे भी इसी प्रकार से प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक श्लोक में हुए दूसरे तत्व में और इसी तरह अनेक तत्व में घूमता रहता है । इसी को मिलेगा।
स्वजेय में परजेय को देखना कहते हैं। [यह अत्यन्त सुन्दर अध्यात्म-विषय प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में उस कार्य के गौरव के अनुसार भिन्न-भिन्न है ] । मंगल वस्तु को लाने की परिपाटी है। अहंत देव ने समस्त मंगल कार्यों को इस अध्यात्म का अत्यन्त मादक सुगन्ध नवनवोदित, अर्थात् "नयी-नयी दो भागों में विभाजित किया है-१ लौकिक मंगल २ अलोकिक मंगल । उत्पन्न हुई गंध" जैसे नव अंक अपने अन्दर समावेश कर लिए हैं उसी प्रकार - अलौकिक मंगल की विवेचना मागे चलकर करेंगे लौकिक मंगल में श्वेत । इसके भीतर नये नयेवर्ण रूपी चौंसठ अक्षर निकलते हुए तथा न्यूनाधिक होते घोड़े को लाकर देखना चाहिए ।२।।
हुए राशि में सभी अंकों में घूमने का चरित्र अर्थात बंधन रूप है।५। ". श्वेत घोडे से भी अधिक वेग से भागनेवाले उस मन को अमंगल जैसा कमल के ऊपर के सूक्ष्म भाग को स्पर्श करते हुए नीचे उतर कर आने माना जाता है। उस अमंगल रूप मन को मंगल रूप में परिवर्तन करने के लिए वाले, भ्रमर के समान उसी में घूमते समय रत्न, सोना, चांदी का रंग दीखने अत्यन्त वेग से दौड़नेवाले को, अत्यन्त मत्त होकर कूदने वाले चंचल बन्दर को लगता है।५३। खड़ा कर देखने से अपने चंचल मन को एकाग्र चित्त बनाने के निमित्त इन। इस मर्म को समझकर पारा और गंधक के गरिएत क्रमानुसार भस्म दोनों के मंगल में लाने का यही प्रयोजन है ।२६1
करके धर्मार्थ रूप में इसका उपयोग करना यही पुष्पायुर्वेद का मर्म है ।५४) । रेणुका देवी अर्थात् श्री परशुराम की माता स्या द्वाद मुद्रा से अपने मम। जलज अर्थात् जल कमल की एक-एक पंखुड़ी को को स्पर्श करके कमल को बांधती थी । जिस समय उनके पति उनके ऊपर कब हुए थे उस समय रूप बन गया, उसी प्रकार द्रव्य मन भी है । द्रव्य मन अनेक विषयों से भिन्नरेणुका देबो ने अपने मन को एकानु करके यह चिन्तन किया कि मेरा आत्मा। भिन्न होने पर भी एक ही है । उसको एकत्रित करके, जैसे प्रक्षर को मात्रा ही मेरा सर्वस्व है यही मेरा सहायक है, उसी समय उनके पुत्र परशुराम के और अंक मिलाकर जैसे काव्य रूप बना देते हैं उसी प्रकार द्रव्य मन को भी परशु के प्राघात से उनका प्राणान्न हुया और उन्होंने उत्तम शुभ गति को बांध दे तो चन्द्रमा के समान वह भीतर का मांस पिण्ड धवल-रूप दीखता है। प्राप्त किया । अर्थात् देवगति प्राप्त की।
इसका नाम चित्र विद्या है ।५५॥ ( यह प्रसंग अन्य वैदिक ग्रन्थ में नहीं है)
(श्लोक नं०५६ से श्लोक नं०८२ तक सेनगरण का वर्णन पाता है) इस प्रकार अनेक विशेष विषयों को प्रतिपादन करने वाला यह अति- है जैसे नव अंक अपने अन्दर ही वृद्धि को प्राप्त करता है उसी पर संरक्षित शब भूवलय ग्रन्थ है।३०॥
३ भी होता है। इसी तरह होने के कारण ही नव पद भाग्य-दहाली कहलाता है,